Lecture 7 & Lecture 8 – संवाद लेखन & हिंदी व्याकरण
November 24, 2011 66 Comments
Wednesday 22 Nov 2011, ACE, 09.00 – 12.00 (2 lectures)
नमस्कार.
हमेशा की तरह आज भी आपको हिंदी टंकण, ईविद्या आदि पर स्पष्टीकरण दिया गया. आप सभी से पुन: आग्रह है कि http://www.evidya.org पर अपनी सदस्यता बनाएँ तथा शिक्षण की इस नई विधि का भरपूर लाभ उठाए.
इस बार हमने संवाद लेखन पर कार्य किया. पिछ्ली बार आपको कक्षा में एक कार्य दिया गया, टोलियों में आपको किसी भी विषय पर संवाद लिखने थे. आज हरेक टोली ने वह कार्य प्रस्तुत किया जिसपर हमने साथ मिलने विश्लेषण भी किया. कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु सामने आए. जैसे कि संवाद लेखन, स्थिति, परिवेश, वातावरण, समय, संदर्भ आदि को ध्यान में रखते हुए लिखे जाने चाहिए. साथ ही, भाषा के प्रयोग तथा अन्य भाषिक पहलु भी इन सभी तत्वों के अनुकूल हों. शैली का भी ध्यान रखें. संवाद में मौलिकता, प्रवाहमयता व सहजता अनिवार्य है. पात्रों के वैचारिक संवाद में टकराहट हों, तो अच्छी बात है..
शब्द-चयन पर भी ज़ोर दें. शब्द का अपना संसार होता है, उसमें अर्थ हम प्रयोग के स्तर पर भरते हैं. उसमें अर्थगत वैविध्य लाने पर उसके महत्व को और अधि प्रगाढ़ बनाते जाते हैं. यह कुछ सैद्धांतिक बातें है जो पिछली बार आपको समझा दी गई थी. इस बार आप इस ज्ञान को व्यावहारिकता पर लाएँ.
कक्षा के दूसरे हिस्से में, मैंने आपके द्वारा पूछे गए भक्तिकाल संबंधी विषय पर एक विश्लेषणात्मक प्रस्तुतीकरण रखा. आशा है कि भक्तिकाल को और अधिक गहराई से आप समझ पाए..
आप से आग्रह है कि ऐसी कोई भी चिंता हों, तो अवश्य पूछें..
धन्यवाद.
namaste guruji
our class was really very interesting and helpful…lagbagh sabhi group ne kuch na kuch zazur tayar kiye the…aur issse kaksha ka vatavaran kafi rochak thi…sabne khoob hanse…
finally when u explained us about bhaktikal ,u were so much explicit zat we came to understand it well….hoped if u would have done zat module wz us 2…
नमस्ते गुरुजी,
कल की कक्षा हमेशा की तरह रोचक थी. आप का धन्यवाद कि आपने हमे ईतनी अच्छी तरह से भक्तिकाल समझाया. काश आप ही हमे यह विषेय पढाते तो अच्छा होता
नमस्ते गुरुजी विनय !
बुद्धवार एवं उससे पूर्व की कक्षाएँ बहुत लाभदायक थीं. मैं क्षमा चाहता हूँ क्योंकि मैं कॉम्प्युटर के बिगड़ जाने की वजह से सम्पर्क रखने में असमर्थ रहा. क्रृपय्या आप मुझे यह बतएँ कि ईविद्या पर कैसे भेजूँ.
pagal
Hello Guruji,
The last class was indeed very interesting..because i actually followed it :-)) While listening to you, i was thinking that “God, this man has got internet in his mind!! So many information is stored in there!”
Anyways, thanks a lot for your help. Looking forward to work with you again.
Sandhya
नमस्ते गूरुजी
बुधवार को आपने संवाद पर जो समझाया वह स्पष्ट और सटीक था।
उदाहरण के माध्यम से संवाद की भाषा पर भी प्रकाश डाला |
अंत मे भक्तिकाल को जिस तरह से हमारे सामने रखा उसे समझने मे आसानी हुई |
neerputh anjalee
नमस्ते गुरुजी
उदाहरण के माध्यम से आप ने संवाद को स्पष्ट किया। भक्तिकाल संबन्धी काफ़ी जानकारियाँ दीं। इसके लिए आप को बहुत धन्यवाद क्योंकि हम एच.एस.सी वालों के लिए यह विषय बोझिल है। काश आप हमें साहित्य पढ़ाते। आप यह बात हमारे साहित्य के प्रवक्ता कॊ मत बतायेगा वरना हम तो गए काम से।
नमस्ते गुरुजी
आपने कक्शा मे हमे इ-विद्या एवम वोर्द्प्रेस्स के बारे मे काफी जानकारी दी. आपने भक्तिकाल पर भी प्रकाश डाला और आसाय्मेट करने मे हमे आसानी हुई. व्याकरण के बारे मे भी हमे अधिक जांकारी मिली.
आपको धन्यवाद
booooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooring
boooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooring
it is really booooooooooooooooooooooooooooooooooring
डोडो की मित्रता
बहुत समय पहले की बात है.मेबर्ग मे एक चोता सा लरका रहता था.वह तीसरी कक्शा मे परता था.नाम था उसका ह्नु.उसके माता-पिता मचुए थे.मचली बेचकर वे अपना गुज़ारा करते थे.एक दिन वे मचली मारते-मारते समुद्र मे दूर चले गये.अचानक मोसम खराब हो गय.समुद्र बहुत ही चंचल हो गया.ऊची-ऊची लहरे उथने लगी.उनकी नाव उलट गई और माता-पिता डूबकर मर गये.बेचारा हनु अकेला रह गया.वह सिसक-सिसक कर रोने लग.रात को बिना कुच खाये-पिये वह सो गया.दूसरे दिन सुबह होते ही वह जागा.भूख के मारे उसका बुरा हाल हो रहा थ.घर मे खाने के लिये कुच भि नही थ.उसे एक विचार आया – “क्यो न मै अरवी या शक्करकंद उखारकर उबालू और वही खाकर अपना पेट भर लूगा.वह बगीचे मे गय.कुदाल से ज़मीन खोदने लगा.”पर यह क्या”!इतना बरा अंदा.ज़मीन के अंदर! इतना बरा अंदा तो मै ने कभी नही देखा था.वह अपने दोनो हाथो से अंदे को पकरकर घर मे ले जा रहा था कि अंदा हाथ से चूतकर नीचे गिर गया.अनदे के दो टुकरे हो गये.पर यह क्या!बाप रे बाप! अंदे मे से एक बरा पक्शि निकल आया.हनु चकित हो गया.वह अपनी आखे फार-फार कर उसे देखता ही रह गया.पक्शि बोल-“दरो नही, दरो नही.मै तुम्हे कुच नही करूगा.क्या, तुम मुझसे दोस्ती करोगे?मै तुम्हारी खूब सेवा करुगा.”हनु ने कहा-“पहले बताओ कि तुम कौन हो? कहा से आये हो?ज़मीन के अंदर क्यु रहते हो?ज़मीन के अंदर क्यु रहते हो?’ तब पक्शि अपनी कहानी सुनाने लगा.”मेरा नाम डोडो है.मेरे माता-पिता ओर बहुत से भाई-बहने आस-पास के जंगल मे रहते थे.डच लोग यहा आए और सभी को मार-मार कर खा गये.मै ही सबसे चोता थ.मै भाग कर यहा चिप गया थ.मै अकेला बच गय. पर यह बात किसी से नही कहन.अगर लोग मुझे देख लेगे तो मुझे भी नही चोरेगे.हनु बोला –“मै वचन देता हू.मै यह बात किसी से नही कहूगा.”डोडो खुश होकर बोल-“तुम मेरी पीथ पर बैट जाओ.डरना नही, ज़ोर से मेरी गर्दन पकर लो.मै तुम्हे एक टापू की सैर कराने ले जाऊगा.हनु उसकी पीथ पर बैट गया.डोडो उरने लगा. हनु को बरा मज़ा आ रहा था.थोरी देर बाद वे एक हरे-भरे टापू मे पहुचे.अरे वाह!इतना सुंदर द्रिश्य!इतने सारे पक्के-पक्के फल.उसके मुह मे पानी भर आय.वह स्वादिश्ट फलो का आनंद लेने लगा.वहा तो जादू के पेर थे जिन पर चॉकलेट-बिस्कूट, रसगुल्ले-जलेबियॉ लगी हुई थी.हनु से रहा न गया.वहा बंदर की तरह कभी यहा तो कभी वहा उचलने लगा.वह जल्दी-जल्दी मिथाइयॉ ले-लेकर जेब मे भरने लगा.तब डोडो बोल-“अब हम वापस घर चलते है.”वे घर आ गये तो डोडो बोल-“अब मै अपने अंदे मे घुस जाता हू.तुम मुझे मिट्टी के अंदर चुपा देना.कल हम दोनो फिर टापू की सैर करने जायेगे.हनु प्यार से बोल-‘डोडोतुम कितने अच्चे हो.तुम्ही मेरे सच्चे मित्र हो.दुख के समय तुम्ही मेरे काम आये.उस दिन के बाद दोनो मे गहरी मित्रता हो गयी.
neerputh anjalee
संतोष
संतोष परम सुखम
इस विकास एवं आधुनिक दुनिया में जो व्यक्ति अपने जीवन में, अपनी परिस्थिति, अपनी नौकरी एवं अपने परिवार में संतुष्टि का आनन्द करता है वही व्यक्ति दुनिया का सब से सुखी व्यक्ति होता है। यदि एक व्यक्ति संतोष धन पाता है तो वही सबसे महान और भाग्यवान होकर आनन्दित जीवन जीता है।
हमारा देश बहुजातीय के कारण हरेक व्यक्ति के रहन-सहन , हाव-भाव में विभिन्न्ता पायी जाती है लेकिन सभी नागरीक मोरिशसवासी होने के कारण,हाथों में हाथ मिलाकर इस टापू की प्रगति के लिए कार्य करते रहते हैं। हर एक नागरिक एक समान नहीं और जीवन जीने का तरीका भी भिन्न है। अतः एक दूसरे की प्रगति देखकर हृदय में जलन नहीं करना ही संतोष का लक्षण है।
लघुता से प्रभुता मिले
प्रभुता से प्रभु दूर
चिंटी ले शक्कर चली
हाथी के सिर धूल
अर्थात लधुता से प्रभुता मिलता है, प्रभुता से प्रभु दूर हो जाता है, चिंटी जैसी तुच्छ कीड़ा शक्कर की मिठास चख लेती है और हाथी जैसे बड़े जानवर के सिर तो धूल से ही भर जाता है। इस उदाहरण से हमें शिक्षा मिलती है कि इस भगवान की बनाई सृष्टि में हर एक की अपनी महता है। कोई बड़ा न कोई छोटा है, सब अपने स्थान में ऊँचा है। इसिलिए किसी में भेद नहीं करना चाहिए, जो जैसा है भगवान की देन समझकर उसे स्वीकार करने में ही संतुष्टि है।
हमें जीवन में स्वार्थी नहीं बनना चाहिए बल्कि उदारता भी दिखाना चाहिए। प्रकृति हमें कैसी सुन्दर सुन्दर सीख देती है।
नदिया न पीये कभी अपना जल
वृक्ष न खाये अपना फल
करका मनका तनका धनका
जो दे दान वही है सच्चा इन्सान जगत का।
ऎसे सुन्दर उदाहरण से क्या हमें शिक्षाप्रद शिक्षाएँ नहीं मिल सकती हैं? नदी कभी अपना पानी नहीं पीती, फलदार वृक्ष अपने मीठे फल कभी नहीं खाते बल्कि झूककर हमें झूकने की शिक्षा देते हैं। इसी प्रकार वही इन्सान सबसे बड़ा भाग्यवान है जो संतोष का मिठास चखते हुए अपने तन, मन, धन से दूसरों की सेवा तथा सहायता करे। ऐसे कई भगवान की बनाई प्रकृति का उदाहरण हमारे सामने हैं जिनपर हम कभी अमल नहीं करते हैं। अब मधुमक्खी को ही देखिए, स्वादिष्ट एवं मिठास मधु बनाकर खूद उसी में रह जाती है, दीपक स्वयं जलकर हमें प्रकाश देता है, गौमाता बिना कोई शिकायत किए हमें अपना दूध पिलाकर बलवान एवं हृष्ट बनाती है। कमल कीचड़ में रहकर भी खिलखिलाकर हँसते रहते हैं। ये हमें इस दल दल रुपी दुनिया में हर एक दुख और मुसीबत का सामना करते हुए संतोष से जीने की सीख देते हैं। हमारे सामने कितने उदाहरण हैं परन्तु हम मनुष्य एक दूसरे में सिर्फ बुराइयाँ एवं टिप्पनियाँ निकालने में अपना अनमोल समय व्यर्थ में गँवा देते हैं। कबीर ने क्या खूब कहा है:
बुरा जो देखन मैं चला ,बुरा न मिलया कोई
जो दिल खोजा मुझ से बुरा न कोई
अर्थात दुसरों के विकारों को न खोजकर अपने हृदय के भीतर झाँककर खूद को सुधारने का प्रयास करेंगे तो दुनिया में आने का तथा अनमोल शरीर पाने का मतलब समझकर जीवन के मोर पर संतोष होने का अनुभव करेंगे।
एकता जैसी महान शक्ति की सहायता से एक सूत्र में बंधकर, दूसरों की भलाई सोचकर, एक दूसरे की सहायता करके, अपने मेहनत की कमाई पर तथा परिवार की सेवा से और मोरिशस के नागरिक होने पर संतोष करेंगे तो अवश्य सुखी जीवन व्यतित करेंगे। फिर इस दुनिया को छोड़ते समय किसी मोह माया में न फँसकर खुशी खुशी विदा होंगे, यही संतोष की सीख है।
स्वामी दयानंद
स्वामी दयानन्द एक महापुरुश थे.उन्होने समाज सुधार करके मानव जाति का उपकार किया है इसीलिए संसार मे उनका नाम आदर से लिया जाता हे.स्वामी दयानंद का जन्म भारत के गुजरात प्रांत के तंकारा नामक गॉव मे 12 फरवरी 1824 को हुआ था.उनके बचपन का नाम मूलशंकर था.उनके पिता का नाम करशंजी तिवारी तथा माता का नाम यशोदा बाई था.मूल्शंकर इतने मेधावी थे कि उन्होने 14 वर्श की अवस्था मे ही पूरा यजुर्वेद कंथस्थ कर लिया था. करशंजी तिवारी गुजरात प्रांत के एक उच्च अधिकारी के साथ-साथ एक ज़मींदार भी थे.वे चाहते थे कि मुल्शंकर पर लिखकर ज़मींदार का काम सम्भाले.परन्तु मूल्शंकर सच्चे ज्यान की खोज करना चाहते थे. जब मूल्शंकर 21 वर्श के हुए तो एक दिन वे चुपके से घर चोरकर चले गये.उन्होने जंगलो और आश्रमो मे साधु-महात्माओ से शिकशा पायी.उनकी जिज्यासा और ईश्वर के प्रति श्रद्धा-भक्ति देखकर स्वामी पुरनानंद् ने उनको संयास की दिक्शा दी.तब से मुल्शंकर स्वामी दयानंद सरस्वती कहलाने लगे.मथुरा मे विरजानन्द नामक संयासी रहते थे.वे वेदो तथा संस्कृत के बरे विद्वान थे.दयानंद उनके शिश्य बन गये. गुरु विर्जानंद दयानन्द जैसे मेधावी शिश्य पाकर बहुत खुश हुए.गुरु से की हुई प्रतिज्या के अनुसार स्वामी दयानंद समाज-सुधार के काम मे लग गये.उन्होने वैदिक धर्म का प्रचार किय.लोगो को सत्य का मार्ग बताय.शिशा के महत्व पर बल दिया.लरको की शिक्शा के साथ-साथ लरकियो की शिक्शा का भी प्रचार किया.उस ज़माने मे लरकियो को पद्ने नही दिया जाता था.सात-आट वर्श की उम्र मे ही उनका विवाह हो जाता था.पति के म्रित्यु के बाद सती प्रथा को ध्यान मे रखकर उन्हे अपने पति के साथ जला दिया जाता था.स्वामी दयानंद ने इस प्रथा पर रोक लगाया.जगह-जगह पर विद्यालय खुलवाये.उन्होने बाल-विवाह को रोका.स्वामी दयानंद ने जनता की भाशा हिंदी मे सत्यार्थ-प्रकाश नामक ग्रंथ लिख.वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार तथा समाज-सुधार के लिये उन्होने 10 अप्रैल 1875 को बम्बई मे आर्य-समाज की स्थापना की.आजकल केवल भारत मे ही नही बल्कि संसार के अन्य देशो मे भी आर्य समाज पाये जाते हे.मोरिशस मे आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल 1910 को पोर्ट-लुई मे हुई.स्वामी दयानंद ने अनेक धर्म ग्रन्थ लिखे है.उन्होने ऋग्वेद,यगुर्वेद,सामवेद और अथर्ववेद लिखे है जो ईश्वर की वाणी है.उन्होने सत्यार्थ प्रकाश और संस्कार विधि नामक पुस्तके भी लिखे है.उन्होने आर्य समाज के दस नियम बनाये है जो इस प्रकार से है:-
1.सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते है, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है.
2.ईश्वर सच्चिदनंद्स्वरुप, निराकार,सर्वशक्तिमान,न्यायकारी, दयालु, अजन्मा,अनंत,निर्विकार,अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामि,अजर,अमर,अभय,नित्य,पवित्र और श्रिस्तीकर्ता है.उसी की उपासना करनी योग्य है.
3.वेद सब सत्य विद्याओ का पुस्तक है.वेद का परन,पराना और सुनना-सुनाना सब आर्यो का परम धर्म है.
4.सत्य के ग्रहण और असत्य के चोरने मे सर्वदा उद्यत रहना चाहिये.
5.सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिये.
6.संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्येश है अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना.
7.सब से प्रीतिपुर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये.
8.अविद्या का नाश और विद्या की व्रिद्धि करनी चाहिये.
9.प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुश्त नही रहना चाहिये.किंतु सबकी उन्नति मे अपनी उन्नति समझनी चाहिये.
10.सब मनुश्यो को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने मे पर्तंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम मे सब स्वतंत्र रहे.
जो आर्य समाजी इन नियमो का पालन करता हे वही सच्चा आर्य समाजी हे.1883 मे 59 वर्श की आयु मे राजस्थान के अजमेर नगर मे दिवाली के दिन स्वामी दयानंद का निर्वाण हुआ.इसीलिये दिवाली के दिन ऋशि-निर्वाण दिवस भी मनाते है.
पानी
पानी तेरे कितने नाम
पानी तेरे कितने काम
बुझती प्यास पानी से
जीते है ह्म पानी से
पानी ….. यह चोटा सा शब्द हमारे जीवन मे बहुत महत्व रखता है. हमारे देश मोरिशस के चारो ओर समुद्र का खारा पानी है.ज़मीन पर जल्स्त्रोत, कुए,झरने और तालाब है.इन सब जगहो पर मीथा पानी है.ज़मीन के अंदर भी पानी है.वर्शा से भी बहुत पानी मिलता है.फिर भी कभी-कभी हमारे देश मे पानी की कमी होती हे.हम समुद्र का पानी नही पी सकते क्युंकि उस्मे नमक होता हे.हम स्मुद्र के पानी से नमक बना ते हे.तालाब और नदियो का पानी मैला होता हे.उसमे कीरे और कीटाणु होते हे जिंनसे तरह-तरह की बीमारिया पैदा होती है.जो पानी हमारे घरो मे आता हे उस् मे कीटणु होते है जिनसे तरह-तरह की बिमारिया पैदा होती है.जो पानी हमा रे घरो मे आता है उसमे कीटाणु नही होता क्युंकि यह पानी मार–ओ-वाकवा मे थिराकर साफ़ किया जाता है.फिर क्लोरिन मिला या जा ता है ताकि कीटाणु मर जाये.
पानी दुनिया का सब से महत्व्पूण वस्तु है. पानी के बिना ह्म जी नही सकते है.सन्सार मे ३% भाग मीथा पानी है.सत्तान्बे% खारा पानी है. आज पानी की बहुत बरी समस्या है. पुराने ज़माने मे नल नही था.नदी तालाब मे पानी था.लोग पहार के आसपस अपना घर बनाते थे.वे नदी से पानी लाकर अपने काम करते थे जैसे खाना पकाना, घर की सफ़ाई करना, बरतन माजना.लोग नदी किनारे कपरे धोने जाते थे.लोग नदी मे ही नहाने जाते थे.पानी बहुत पवित्र वस्तु है.यज्य हवन मे, शादी-ब्याह मे और कई धार्मिक कायो मे ह्म पानी का ही उपयोग करते है.हर सन्स्कार मे पानी की आवश्यकता होती है.आचमन द्वारा हम अपने इन्द्रियो को पवित्र करते है.पानी का बहुत बरा महत्व होता है क्यॊकि महाशिवरात्रि मे हम गन्गा तालाब से जल लाकर शिवलिन्ग पर चराते हे.आज हमारे देश मे पानी की बहुत कमी हो रही है.सभी प्राणी इसपर निर्भर होतॆ है.आज भी जब कोई घर बनाता है तो पानी की उप्लब्धि पर अवश्य ध्यान देता है. जहा पानी नही होता वे वहा उसका प्रबन्ध कर लेते है.जहा पानी नही होता वहा जीवन नही होता.पानी एक ओर वरदान है तो दूसरे ओर प्रलय है. पानी से ह्म सब कुछ करते है.लेकिन जब बार आता है तो वह सब कुछ बहा ले जाता है. ह्म पानी के बिना नही जी सकते है क्युकि पानी के बिना संसार में कोई जीव नही रह सकता.पुराने ज़माने में जब वर्शा नही होती थी तब लोग हरपरेवरी गाते थे और इससे बारिश होती थी.तानसेन भी एक ऎसॆ गायक हो चुके है जो अपने गीतों द्वारा पानी बरसा सकते थे.लेकिन आज हम देखते है कि पानी की कितनी समस्याए हो रही है .मोरिशस मे कितने जलाशय है फिर भी पानी की कितनी समस्याए हो रही है. मार ओ वाक्वा जलाशय मे कितनी बार यज्य किये जा चुकॆ है फिर भी पानी की कमी महसूस होती हे.क्या हम ने कभी सोचा है कि ऎसा क्यु होता है .आज संसार तेज़ी से बदल रहा है .हम स्वयं अपने साधनों का दुरुपयोग कर रहे है .हम ऎसी वस्तुओं का प्रयोग कर रहे है जो हमारे जीवन को बर्बाद कर रहा है .इसलिये हमे अपने साध्नो का अच्चा उपयोग करना चाहिये.इस्लिये पा नी का सदूपयोग कर्ना आवश्यक है.
हमारे पुर्वज
हमारे पुर्वज भारत से मोरिशस आये थे. उन्हे यहा ईख के खेतो मे काम करने के लिये लाया गया थ.शर्त्बंद मज़दूरो की पह्ली टोली 2 नवमबर 1834 को आत्लास नामक जहाज़ से यहा पहुची थी.वे कुली घाट पर उतरे थे. उन दिनो कुली घाट एक इमिग्रेशन डीपो था जहा से मज़दूरो को शक्कर कोठियो मे भेजा जाता था.हमारे पुर्वज जब यहा आये थे, तब वे मज़दूर थे. उनके पास तन धकने के कपरे नही थे. उनसे रात दिन काम करवाया जाता था.उन पर बहुत अत्याचार होता था. फिर भी वे चुपचाप सब कुच सह्ते गये क्युकि उनके पास कोई और रासता नही था.वे दिन भर खेत मे काम करते थे. लेकिन शाम को वे अपनी चोटी सी कुतिया मे ही रामायण का पाठ करते थे. वे अपने साथ अप ने धर्म ग्रंथ लाये थे जिनके पथ चिन्हो पर चलना उन्होने कभी नही चोरा. शायद इसी के फलस्वरुप उन्हे सब कुच सहने की शक्ति मिलती थी.वे अ प ने बेटे बेटीयो को अपने धर्म और संस्क्रीती के बारे मे अवश्य बताते थे. धीरे-धीरे देश प्रगति कर ता गया.वे सुर्योदय से सुर्यास्थ तक खेतो मे काम करते रहे.एरी-चोटी का पसीना एक करके उन्होने घने जंगलो को काटकर ज़मीन को उप्जाऊ बनाया और सुगम रास्ते बनाये.अथक परिश्रम करने के बाद भी उनके साथ अत्याचार किया जाता थ. बीमारी की अवस्था मे काम पर अनुपस्थित होने पर गोरे मालिक उनके वेतन काट देते थे और रविवार के दिन उनसे नि शुल्क अतिरिक्त कार्य करवाते थे.सालभर उन्हे केवल एक दिन चुट्टी दी जाती थी.इतने शारीरिक कस्ट और मांसिक पीरा सह्ने के बाद भी वे रातो को बैठ्काओ मे मिलते थे और सत्संग करते थे.सत्संग मे वे भजन-किर्तन और रामायण पाठ करते थे.आदोल्फ-वान दे प्लेवित्ज़ को भारतिय आप्रवासीयो की दुर्द्शा पर दया आयी और उन्होने गोरे मालिको के विरुध एक याचिका प्रस्तुत की.फलस्वरुप भारतीय आप्रवासियो के जीवन मे हलका सा सुधार आया.महात्मा गांधी जी ने सन 1901 मे मोरिशस आये.वे भी भारतीय आप्रवासियो की दशा देखकर बहुत दुखी हुए.उन्होने स्थिति मे सुधार लाने के लिये 1901 मे मणीलाल डाक्टर् को भारत से मोरिशस भेजा.उनके यहा आने से समाज मे नवजागरण आय.कई सामाजिक नेता तैयार हुए.फलस्वरुप डा सर शिवसागर रामगुलाम के नेत्रित्व मे 12 मर्च सन 1968 को मोरिशस स्वतंत्र हुआ.स्वतंत्रता के बाद देश मे खुशियाली चाई.यह हमारे पुर्वज़ो के कठोर परिश्रम का फल ही तो है.ह्मारे पुरवज़ ने हमारे लिये इतना किया.या.हमारे बाप दादो को सुसंस्क्रित किया.फिर हमारे माता-पिता ने हमे वही सन्स्कार दिय.लेकिन आज हम देखते है कि वैसी बात नही है.बच्चो के मन मे अपने बरो के प्रति वही आदर भावना नही है.हमारा समाज पाश्चात्य संस्क्रिति का इतना अनुकरण कर रहा है कि कुच वर्शो मे हम अपने आप को पेह्चान नही पायेगे. इसका कारण सन्चार के साधन है.पुराने ज़माने मे माताए घर पर रहती थी.वे अपने परीवार की देख रेख करती थी.वे अपने बच्चो के साथ बाते कर सकती थी और अच्चे बुरे की पेह्चान करा सकते थे.लेकिन औद्योगिकरण के कारण माताए कार्खानो मे काम करने लग गयी है जिसके कारण अपने बच्चो के लिये उनके पास समय नही है.बच्चे अपने आप मे खोये रहते है और कुसंगत मे परकर बुरी आदतो का शिकार हो जाते है.इसलिये मात-पिता को चाहिये कि अपने बच्चो के साथ ज़्यादा समय बिताये ताकि जब बच्चो को कोई समस्या हो तो वे बेझिझक अपने परिवार से बात कर सके.
नमस्ते ,
गत सप्ताह की कक्षाएं एकदम सजीव रहीं।परंतु मूडल प्लात्फ़ोर्म या ईविद्या पर login करना असम्भव हो रहा है। अनेकों बार प्रयास तथा एमेल आदि सब जानकारियां देने पर भी ठीक नहीं हो पा रहा है। कृपया इसपर अपना मत प्रकट कीजिए ।धन्यवाद।
शिवरानी.
अनुशासन
अनुशसन का मानव जीवन में बरा महत्वपूर्ण स्थान है.अनुशासन का निर्माण दो शब्द ‘अनु’ और ‘शासन’ से हुआ है.इसके बिना जीवन में एक क्शन भी कार्य नही चल सकत.घर, पाथ्शाला,कक्शा, सेना, कार्यालय, सभा इत्यादि में अनुशासन के बिना एक शन भी कार्य भी नहीं चल सकता.अत: अनुशासन का अर्थ नियंत्रण में रहना तथा नियम-बध कार्य करना.इसका वास्तविक अर्थ है बुद्धि व चरित्र को सुसंस्क्र्त बनाना अनुशासन का मह्त्व जीवन में उसी तरह है जितना कि भोजन एवं पानी का है. अनुशासन एक महान गुण है. इसके पालन करने से प्रत्येक रार्शत्र उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है. कुच अभिभावकों की द्रुशति में विधयालय ही अनुशासन का सबसे अचचा केंद्र है.वास्तव में ऐसे बच्चे ही अदण्द, आलसी तथा आज्या को भंग करने वाले बन जाते हैं.अनुशासन तभी से होना चाहिए.जब शिशु अपने मधुर तोतली भाशा में अपने स्वजनों का मन लुभाया करता है.अनुशसन प्रिय बच्चे शिक्शा को पूर्ण रूप से समझते हैं क्योंकि वे अध्यापक के द्वारा पराये गये पाथ को ध्यान-पूर्वक अध्ययन करते हैं.अनुशासन प्रिय बच्चे कक्शा में शोरगुल नही करते और न किसी के साथ संघर्श मोल नही लेते.विदेशी राश्त्रों में शिक्शक अनुशासन पर विशेश ध्यान देते हैं.विद्यार्थी जीवन में अनुशासन प्रियता ही अमुल्य निधि है क्योंकि इसे पाकर ही जीवन का मार्ग खुलता है. आज की दुनिया में जो राश्ट्र अनुशासन को महत्व नही देते हैं.वे संसार के सबसे पिछरे हुए राश्ट्रों में समझे जाते हैं.समाज में अनुशासन उत्पन्न करने के लिये शिक्शा का प्रसार करना चाहिये.सभा, खेलकूद,व्यायाम आदि भी अनुशासन पैदा करने के अच्छे साधन हैं. आज्या का पालन, नियम अनुसार जीवन बिताना तथा शिशटाचार भी अनुशासन को प्रोत्साहित करते हैं.यदि हम अपना जीवन सुखमय एवं सरस बनाना चाहते हैं तो हमें शीघ्र ही अनुशासन के व्रत का पालन करना चाहिये.बिना अनुशासन के जीवन वासतविक जीवन नही है.प्रत्येक नवयुवक को अनुशासन की अमिट शक्ति को जीवन का साधन बनाना चाहिए.अनुशासन में रहने पर ही वह देश का अच्छा नागरिक बन सकता है.अनुशासन का पाथ प्रेम का पाथ है, कथोरता का नही.अत: बच्चों को प्रेम के साथ पराना चाहिए.
एक आदर्श अध्यापक
शिक्शा से ही मनुश्य का जीवन सुखी और समृध बनता है.मनुश्य को आदर्श नागरिक बनाना उसके अध्यापक पर निर्भर है.अध्यापक ही राश्त्र का निर्माता है.अध्यापक का कार्य बरे उत्तर्दायित्व का होता है.एक आदर्श अश्यापक अपने विद्यार्थियो को राश्त्र की महान विभूतियॉ बना सकता है.एक आदर्श अश्यापक को विद्वान और गम्भीर होना चाहिये. स्कूल मे रामदत जी एक ऐसे ही अध्यापक है.उनकी प्रतिभा और बुद्धि धन्य है.विद्यार्थियो द्वारा पूचे गये कथिन से कथिन प्रश्नो को तुरंत सुलझा देते है.विद्यालय के सभी चात्रो मे उनका विशेश सम्मान है.विद्यालय के सभी अध्यापक उनकी योग्यता पर गर्व करते है.रामदत जी अध्यापन कार्य मे बरे ही कुशल और योग्य है.उनकी अध्यापन कुशलता की सभी विद्यार्थी प्रशंसा करते है.वह गूर से गूर तथा शुश्क से शुश्क विशय को बरे ही रोचक और सरल धंग से विद्यार्थियो को समझाते है.उनकी अध्यापन शैली बरी ही रोचक और प्रभावपूर्ण है.एक आदर्श अद्यापक को अपने देश तथा संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम होना चाहिये.रामदत जी की कक्शा में पराने का स्तर इस प्रकार का है जिसमें कम योग्यता वाले तथा अधिक योग्यता दोनों प्रकार के विद्यार्थियों को अधिक से अधिक लाभ पहुंचता है. उनकी किसी भी विशय के स्पशटीकरण की शैली बरी ही सरल तथा सुबोध होता है.एक आदर्श अध्यापक चात्रों को स्वावलम्बन की ओर प्रेरित करते हैं.विद्यार्थी जीवन ही वह जीवन है जिसमें नागरिक धलते हैं.एक आदर्श अध्यापक को अपने सभी विद्यार्थियों से अपूर्व स्नेह रखना चाहिये.विद्यार्थियों को अपने बच्चों की तरह समझना चाहिये.चात्रों के दुख सुख को अपना सुख-दुख मानना चाहिये.यदि किसी बालक में कोई दोश या दुर्गुण देखते हैं तो उसे दूर करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिये.आवश्यकता पर जाने पर किसी चात्र को दण्द भी देते हैं.वे किसी भी चात्र का अहित होता नही देख सकते.वे सदैव ही अपने चात्रों की मंगल कामना करते हैं.परिक्शा में अनुतीण् चात्रों के प्रति हमेशा सहानुभूति प्रकट करते हैं.आदर्श अध्यापक को अध्ययंशील होना चाहिये. वे प्रतिदिन दैनिक, साप्ताहिक तथा मासिक पत्रों का अवलोकन करते रह्ते हैं. रामदत जी का कहना है कि ज्यान का चेत्र अपार है.जीवन में जितना भी ग्यान प्राप्त किया जाय वह सदैव थोरा है.सभी अध्यापक का स्वभाव अत्यंत ही कोमल होना चाहिये.विनयशीलता उनमें कूट-कूट्कर भरी होनी चाहिये. उन्हें अभिमान तनिक भी नही करना चाहिये.एक आदर्श अध्यापक का अद्येश सादा जीवन उच्च विचार होना चाहिये.रामदत जी साधारण वेश-भूशा को पसंद करते हैं.स्वच्च्ता से उन्हें बहुत प्रेम है.इसिलिये वे चात्रों को भी सदा स्वच्च रहने के लिये प्रेरित करते रहते हैं.एक आदर्श अध्यापक को परोपकार, सहनशीलता, सत्यवदित,न्याय प्रियता आदि गुणों से परिपूर्ण होना चाहिये.हमारा देश ऐसे ही आदर्श अदयापको के सहयोग द्वारा उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है.अध्यापक ही अपने देश को बना व बिगार सकता है.देश की उन्नति उसी के हाथ में है. वही सच्चा सेवक है.
पर्यट्न देशाट्न
मनुश्य का जीवन बहुत छोटा है.अत: उसी मनुश्य का जीवन सार्थक है जो अपने जीवन में अधिक से अधिक आनंद प्राप्त करता है.यह सत्य है कि जीवन का आनंद सैर-सपाटे में है. एक स्थान पर रह्ते-रहते व्यक्ति का जीवन बोझिल सा हो जाता है.इसलिये वह पर्यट्न करना अधिक पसंद करता है.आज पर्यट्न के अनेक साधन उपलब्ध हैं. वास्तव में आज का मनुश्य बहुत ही भाग्यशाली है, क्योंकि विग्यान की कृपा से उसके लिए पर्यट्न करना, आज बहुत ही सुलभ हो गया है.प्राचीन काल में इतनी अधिक सुविधाए नही थीं फिर भी लोग बैलगारियों, ऊटों, घोरों पर तथा पैदल पर्यट्न करते थे.पर्यट्न का समय और उद्देश्य अवश्य होना चाहिए तभी पर्यट्न का यथार्थ लाभ प्राप्त हो सकता है.जिस देश में भ्रमण करना है, उस देश की प्रसिद्धि के कारण और उसके महत्व को पहले ही समझ लेना अधिक हितकर होगा.कोई भी पर्यटक कही पर भी जाता है तो सबसे पहले शोपिंग सेनटर धूधते हैं ताकि घर सजाने की वस्तुए, कपरे,गहने आदि खरीद सकते हैं.यहीं नहीं अपने तथा अपने परिवार के लिये हीरे-मोती से जरे सोने के मूल्यवान आभूशन भी खरीद सकते हैं.उस देश की दस्तकारी, खेल-कूद का सामान और गीत-संगीत तथा कासेट भी खरीद लेते हैं.दूसरे देशों में सीपियों और कौरियों की बनी चीज़ें भी मिलती हैं. यदि हम भारत जायें तो उसके सभी प्रान्तों के स्वादिश्ट भोजन तथा मिथाइयॉ खाने का हमें मौका मिलता है.प्राचीन काल में पर्यट्न के लिये समय अधिक लगता था. उन दिनों मार्ग सुगम नही थे.चोर दकैतों का भय, व्यापार करना कथिन,तथा एक स्थान से दूसरे स्थान जाना भी दूभर था.जो यात्रा कई दिनों में पूरी होती थी वह कुछ घंटों में पूरी होने लगी है. जो चीज़ें प्राचीन काल में असम्भव थी, आज हमारे जीवन में क्रियात्मक रूप से घटित हो रही है आज रेलगारी दौरने लगी है, हवाई जहाज़ में हम चिरियों की भांति उरने लगे हैं.आजकल पर्यट्न के लिये अनेक प्रकार की चमत्कारी कारें, बसें तथा गारियॉ उपलब्ध हैं.पर्यट्न के समय जिस वस्तु को हम अपनी आखों से देख लेते हैं, तथा हाथों से छू लेते हैं, किसी भी बातचीत करते समय कोई प्रसंग आने पर वह दृश्य हमारी आखों के सामने उसी रूप में नाचने लगती है.उसको जिस रूप में हम ने उसे देखा या स्पर्श किया है.भिन्न-भिन्न देशों के भौगोलिक,आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति का सम्पूर्ण ज्यान प्राप्त करने के लिये हमें इन देशों का भ्रमण करना बहुत ही आवश्यक है. पर्यट्न से भिन्न-भिन्न स्थानों की प्राकृतिक सिथति का जलवायु, उपज, सामाजिक द्श, कला-कौशल, औधोगिक अवस्था एवं वहॉ के निवासियों का रह्न-सहन, रीति- रिवाज का ग्यान भी होता है. पर्यट्न ही अनुभव की कसौटी है. देशाट्न से हमारी संकुचित विचारधारा का नाश होकर व्यापक दृशैकोन में एक असाधाराण प्रसार होता है. व्यापारी-वर्ग भी पर्यटन से लाभान्वित होते हैं. वे विदेशों में जाकर देख सकते हैं कि कौन सी वस्तु कहॉ अधिक लाभ पर बेची जा सकती हैं. हम पर्यटन के द्वारा प्राक्तिक और क्रितिम,सभी प्रकार की वस्तुओं तथा दऋशयों को देखकर खुशी से नाच उथ्ते हैं. दुनिया के अनेकों मरीज दाक्त्रों की सलाह तथा अनुमति से स्वास्थ-सुधार के लिए स्वास्थवर्धक स्थानों पर जाते हैं. ह्मारे देश में जब पर्यटक देश-भ्रमण के लिए आते हैं तो कोदां-वाटर फ्रॉट, पाम्प्लेमूस का बाग,ह्मारे समुद्र तट, गंगा तालाब,शामारेल,आदि रमणीक स्थानों को देखे बिना अपने देश न्हीं लौट्ते हैं. जो पार्यट्क ह्मारे छोटे से टापू में आते हैं तो हमारे नंद्न कानन को देखे बिना नहीं लौट्ते. विभिन्न देशों की शिक्शा पधति, व्यापार,कला-कौशल आदि का निरिक्शन हमारे अन्दर देश के उत्थान की भावना जाग्रित करता है.युरोप के लोग पर्यट्न के द्वारा ही अपने देशों की उन्नति की है. पर्यट्न के द्वारा हम भॉति-भॉति के लोगों के सम्पर्क में आते है. देशाट्न के द्वरा मनुशय अपनी और अपने देश कि बहुमुखी अन्नति करता है.प्रगति पथ पर वह आगे बरता है तथा अपने देश को भी आगे बराता है. मनुशय में व्यावहरिक ग्यान कि अभिव्रिधि का पर्याट्न एक प्रमुख साधन है.
महाशिवरात्रि
फालगुण मास की कृश्ण पक्श की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि व्रत रखा जाता है. इसे ‘शिवतेरस’ भी कहते हैं. इस व्रत में शिवजी के भक्त रात भर जागरण करते हैं.शिवे के उपसकों के लिये यह तिथि विशेश महत्व रखता है. हमारे देश में भग्वान शिव के चौदह ज्योतिर-लिंग माने जाते है. सभी मंदिरों में बहुत बरा मेला मगता है.देश के सभी प्रांतों के तीर्थ यात्री इसमें भाग लेते हैं.कॉवरथी यात्रा से एक सप्ताह पहले कॉवर की सजावट में लग जाते हैं.कॉवर श्वेत वस्त्र, मोर पंख, गुरियों, जगमग करते शिशों और फूलों से सजाए जाते हैं.शिवरात्रि के एक-दो दिन पहले हज़ारों कावरथी सफ़ेद धोती, कमीज़ और टोपी पहने कंधों पर बरे सुंदर धंग से सजे कॉवर लेकर गंग-तालाब को जाते हैं.यात्रा के दिन स्त्री, पुरुश और बच्चे कॉवर उथाये ईश्वर भक्ति के गीत गाते जुलुस में निकलते हैं.रास्तों पर बहुत से लोग कॉवर्थियों की प्रतिक्शा करते हैं.जुलुस के पहुचने पर बम-बम भोलेनाथ की जयकार करते हैं.रास्ते पर अनेक परिवार के लोग यात्रियों को शर्बत तथा प्रसाद से स्वागत करते हैं.कहीं-कहीं तो विश्राम करने के लिये पंदाल बनाये जाते हैं.दूर से आने वाले यात्री रात्रि के समय मंदिरों में विश्राम करते हैं. मंदिर के आंगन में सैकरों कॉवरों को देखते हुए ऐसा प्रतित होता है कि देवताओं के विमान रखे हों.रात्रि के समय भजन-कीर्तन और मनोहर उपदेशों से भक्ति और शांति का समाह बंध जाता है.जब यात्रि सरोवर के पास घने वनों में होते हुए पहुंचते हैं तो जंगल में मंगल हो जाता है.सारा वातावरण ईश्वर भक्ति के गीतों, शंखों और घंट घरियालों की ध्वनियों से गूंज उथता है.निर्मल सरोवर की अपूर्व सुंदरता देखकर ह्र्दय में एक नया उल्लास उथता है और रास्ते की थकान दूर हो जाती हैं.गंग-तालाब मोरिशस की सबसे ऊंची प्राकृतिक झील है.मोरिशस में गंगा-तालाब का वही स्थान है जो हिमालय में मानसरोवर का है.गंगा तालाब का जल उतना ही पवित्र जितना हरिद्वार से लाया गंगा जल है. इस सरोवर का आकार गोल सा है.कहां जाता है कि प्राचीन समय में परियॉ चांदनी रात को सरोवर पर आती थीं.वे स्नान करके उस द्वीप पर गाती बजाती और नाचतीं थीं.इसीलिए सरोवर का नाम परीतालाब परा.बाद में भारत की गंगा नदी से जल लाकर इस सरोवर में मिलाया गया और इसका नाम गंगा तालाब रखा गया. शिव भक्तों के लिए तो यह एक महान तीर्थ स्थल है.मोरिशस के सब शिवालयों में शंकर भगवान पर यहां का ही जल चरता है. शिवरात्रि के दो-तीन दिन पहले से ही यहां कॉवर्थियों का मेला लगता है.पूजा पाथ तथा स्तुति प्रार्थनाओं से गंगा तालाब गूंज उथताहै.धूप-दीप से वातावरण सुवासित हो जाता है.सत्संग में ईश्वर का गुण गान होता है और यात्रि बरि श्रद्धा से सुनते हैं. कॉवरथी सुविधा अनुसार कलशो, लोटों, बोतलों और शिशियों में जल भर कर अपने अपने गांवों को लौट्ते हैं.शिव रात्रि की एक रात पहले चार पहर की पूजा होती है.शिव् रात्रि के दिन शिवालयों में शिव जी की पूजा होती है.शिवजी की मुर्ती या लिंग पर सरोवर का जल च्राते हैं.भक्त लोग शिव जी की पूजा करके अन्न और वस्त्र तथा पैसे गरीबों में दान करते हैं.जो व्यक्ति शिवरात्रि को नीर्जल व्रत रहकर शिवजी की पूजा करता है और रात्रि भर का जागरण करके सत्संग एवं शिव कीर्तन करता है उसे शिव मोक्श की प्राप्ती होती है.शिव जी का नाम भोलेनाथ भी है.जो कोई प्राणी इस शिवरात्रि के व्रत का विधिपूर्वक पालन करता है वह अपने पाप कर्मों से मुक्ति पा लेता है.
नमस्ते गूरू जी संवाद पर सभी ने अपना काम प्रस्तुत किया आपने गलतियाँ पर प्रकाश डाली इससे काफ़ी लाभ हुआ।
मानव मूल्य
मनुष्य के लिए ’मानव मूल्य’ ही जीने का सही मार्ग बन सकता है। आज विज्ञान का युग है। इस युग में चन्द्र तक पहुँच गए हैं। आज दुनिया के सभी नागरिक पढ़े लिखे हैं। दुनिया विकसित की चरम सीमा पर पहुँच गया है, लेकिन ऎसे विकसित समय में भी मनुष्य संतुष्ट नहीं है। कौन सा भय मन को खाया जा रहा है कि न शांति से जी सकते हैं और न ही एक्य से जी सकते हैं। कौन सी कमी है जीवन में जो हमें आगे बढ़ने से रोक रहा है। इस युग में सभी अपने को एक दूसरे से महान समझते हैं। हर एक की विचार यही है कि मैं ही सब से समझदार, विद्वान, धनवान, सुन्दर और सभ्य हूँ। इसी धुन में दुनिया से आदर, सत्कार, सेवा कोसों दूर भाग गया है। छोटों के नज़रों में बड़ों का कोई सम्मान नहीं, माँ-बाप, पुत्र-पुत्री सभी एक समान जीते है। किसी में भिन्नता नहीं।
आज कल बच्चे जो भी माँग करते हैं, परिवार उसे पूरा करने में अपना सारा जीवन लगा देते हैं। माँ- बाप अपनी सन्तानों की इच्छाओं से उनकी झोली भर देते हैं लेकिन उन झोलियों में आदर, सेवा, सम्मान, सद्गुण आदि जैसे अनमोल भेंट डालना भूल जाते हैं। फलःस्वरुप ये लाद प्यार से बिगड़े हुए औलादें हैं। बड़े छोटों की बुरी हरकतों को नज़र अनदाज़ करते हुए कह जाते हैं-“जाने दो अभी बच्चा है।“ हमारे धर्म-गन्थों में लिखा है,’मात्री देवो भव, पित्री देवो भव,गुरु देवो भव” अर्थात माता, पिता एवं गुरु का दर्जा भगवान के समान है। इस आधुनिक युग में कौन नवजवान है जो इस बात को मानता है और दोष भी किस को दे? यह करवा सच है कि नई पीढ़ी ’आदर’ शब्द की व्याख्या नहीं समझते हैं। आसानी से बच्चों को सब कुछ मिल जाता है इसिलिए संतोष या सब्र क्या है इन्हें नहीं पता, ऐसे अवसर ही प्राप्त नहीं हुए हैं।
आज के बच्चे कल के नागरिक हैं और देश का भविष्य इन पर निर्भर करता है। लेकिन ज़्यादातर नवजवानों की रुचि ड्र्ग,शराब, मार-पीट, वास्ना आदि बुरी आदतों में हैं। परिवार भी गूँगे, बहरे और अन्धे बन जाते हैं। इन नवजवानों को कुछ कहना मानो साँप के बिल में हाथ डालना है। हमारे युवक-युवतियों को समाज की बातों को सुन्ने का समय नहीं है। त्योहार तथा धर्म स्थानों में जाने की रुचि नहीं है। इनकी एक अलग दुनिया है। ये अपनी दुनिया में मतवाले होकर जीते हैं और जीना पसन्द करते हैं। इन्हें कुछ सुनाई या दिखाई नहीं देता और ये समझते हैं कि ये जो करते हैं वही सही है।
क्या ऐसे बच्चों से हम अपने देश, परिवार, समाज की प्रगति की अपेक्षा रख सकते हैं? यदि बबूल का पौधा बोया तो आम कहाँ से आएगा? मानव मूल्य किसी बाज़ार या दुकान से नहीं खरिदा जा सकता है, इसकी शिक्षा घर से ही शुरु होती है। इसिलिए मानव मूल्य के गुणों पर यदि हर एक नागरिक ध्यान या अमल करेगा तो धीरे-धीरे घर, फिर समाज तब देश प्रगति करेगा अन्यथा इस विकसित संसार में उन्नति के बदले अवनति ही दिखेगा।
विश्व- शांति और शिक्षा
दो विश्व-युद्धों के बाद, लोग तीसरे महायुद्ध को सोचकर भयभीत हो जाते हैं। वे विश्व-शांति को लेकर चिंतित होते हैं। यह एक कठोर सच है कि मनुष्य ही प्रेमरुपी एवं शांतिरुपी संसार को बनाते हैं और वे अपने ही हाथों से इस संसार को नष्ट भी करते हैं। धर्म, राजनीति, न्याय व्यवस्था आदि कई प्रकार के नैतिक नियम-कानून, लोगों ने इसलिए बनाए ताकि इस दुनिया में चारों तरफ़ प्रेम और शांति की वर्षा हो सके। विश्व में कई ऐसे महाजन हैं जिन्होंने अपने देश की शांति के लिए कठोर प्रयासों से गुज़रे। महापुरुषों में महात्मा गांधी का नाम सर्व प्रथम स्थान पर पाया जाता है। उनके साथ और भी नाम जुड़े हुए हैं जैसे जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्रीजी जिन्होंने विश्व-शांति के लिए अपना सहियोग दिया। एक ऐसा समय था जब भारत में अशांति विराजमान थी । परन्तु आज गांधीजी की अहिंसा वचनों से भारत में सुख-शांति की बरसात हो पाई। उन्होंने अपने वचन तथा कर्म से अहिंसा की शिक्षा देकर विश्व-शांति का मार्ग दर्शाया था। लालबहादुर शास्त्री जी ने देश की शांति के लिए ही तो अपनी जान गवाई। गांधीजी के साथ-साथ और कई महान व्यक्ति हैं जैसे अमेरिका के मार्टिन लुथर किंग, दक्षिण अफ्रीका के नेलसन मांडेला आदि जिन्होंने शांति के लिए जाने कितने दुख झेले। ये हमारे सामने एक उदाहरण बनकर आते हैं जिनसे हम तथा आने वाली पीढ़ी भी बहुत कुछ सीख सकती है।
इस संसार का भविष्य हमारी आज की नई पीढ़ी से जुड़ी हुई है और एक अच्छा भविष्य के लिए, विश्व-शांति की जड़ मज़बूत होनी चाहिए, इसलिए शिक्षा को माध्यम बनाकर प्रारम्भ से ही बच्चों के हृदय में शांति कि भावना जागरित करनी चाहिए। तीन साल की अवस्था में ही बालक का मस्तिष्क प्रौढ़ हो जाता है। इस अवस्था में चाहिए कि उसके माता-पिता गुरु बनकर उसका मार्गदर्शन कराए। माँ- बाप को अपनी औलादों की समक्ष एक उदाहरण बनकर उनके सामने सही व्यवहार करें तथा उचित शिक्षा दें ताकि बच्चों की समझने की क्षमता सही राह पर बढ़े। स्कूल में प्रवेश करने से पहले ही बच्चों को बोलने-चलने के साथ-साथ अहिंसा, प्यार, शांति आदि का अभ्यास करवाना चाहिए।
स्कूल को भी अपना पूरा योगदान देना चाहिए। स्कूल की ओर से कुछ ऐसी योजनाएँ होनी चाहिए जिससे बच्चे शांति की महत्ता को भली-भाँति समझ सके। खेल, नाटक, कहानी, प्रतियोगीताएँ आदि प्रणालियों को अपनाकर शांति संबंधी शिक्षा दी जा सकती है। स्कूल शिक्षा-क्रम, पाठ्य-क्रम, तथा पाठ्य-पुस्तक में यह बात ध्यान में होनी चाहिए कि छात्रों के मार्ग दर्शक के लिए विश्व-शांति संबंधित सामग्री प्रस्तुत हो। पाठ्य-पुस्तक के अलावा बालकों को अतिरिक्त पठन-सामग्री के रुप में शांति के प्रचारकों से संबंधित लेख आदि हो जिससे कि वे उन से प्रभावित हो। प्राथमिक स्तर से ही आरम्भ करके इस आवश्यक विषय के विशेष अध्ययन तक का प्रवधान होना अनिवार्य है। इससे बच्चा बड़ा होकर एक अच्छा नागरिक बनेगा तथा विश्व-शांति में अपना योगदान देगा।
’विश्व-शांति’ पर जहाँ अंतर्राष्त्रीय स्तर पर, सम्मेलनों का आयोजन कर विचार-विमर्श किया जा सकता है वहीं इसका प्रचार जड़ से ही, अर्थात शिक्षा के आरम्भ में, बालकों के साथ किया जाना न केवल अनिवार्य अपितु अधिक लाभप्रद है।
पानी
पानी हमारे जीवन के लिए अति आवश्यक है। पानी के बिना जीवन ही नहीं है। मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे सभी पानी पर निर्भर होते हैं। हमारे देश के चारों ओर समुद्र का खारा पानी है। समुद्र का पानी पीने योग्य नहीं होता क्योंकि उसमें नमक होता है। ज़मीन पर झरने, कुएँ, जलस्त्रोत, तालाब, नदी हैं। इन सब में मीठा पानी है। तालाबों और नदियों का पानी मैला होता है। पशु-पक्षी नदी-तालाबों से पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं। हम ऐसा पानी नहीं पी सकते हैं।
हमारे पीने का पानी साफ़ होता है। वह कीटाणु रहित होता है। साफ़ पानी हमें नलों से प्राप्त् होता है। जलाशयों में पानी मौसम के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। गरमी के मौसम में अधिक बरसात होती है और हमारे जलाशयों में इकट्ठाि होता है। तूफ़ानी मौसम भी बरसात लाता है। उस समय हमारे जलाशय उमड़ आते हैं। जलाशयों का पानी यंत्रों द्वारा साफ़ किया जाता है। उसमें क्लोरिन आदि कीटनाशक दवाइयाँ मिलाकर उसे हमारे घरों में नलों द्वारा पहुँचाया जाता है।
पानी इतना उपयोगी वस्तु है कि हम इसकी सहायता के बिना कोई घरेलु काम नहीं कर सकते हैं। इसीलिए नाले-नदियों के पानी से हम बहुत काम करते हैं। खेतिहर अपने खेतों को सींचते हैं। लोग कपड़े, गाड़ी आदि धोते हैं। रेज्वी तामारिंद फ़ाल्स तथा शाँपाई आदि पावर स्टेशनों में पानी से बिजली पैदा की जाती है। ज़मीन के अन्दर भी पानी होता है। ज़मीन खोदकर पानी बाहर निकाला जाता है। पम्पों तथा नलियों से पानी ऊपर लाया जाता है। यह पानी पीने के लिए और सिंचाई करने के काम भी आता है।
रोज़ हमें एक लिटर पानी पीना अनिवार्य है। ज़्यादा पानी पीने से हमारा शरीर स्व्स्थ रह्ता है। हमारे शरीर में ७०% पानी है। खाने से पहले जब हम पानी पीते हैं तब हमारा पाचन शक्तिै ठीक रहती है।
पानी का धार्मिक मह्त्त्व भी देखा गया है। हम पूजा-पाठ, शादी, यज्ञ आदि में जल का उपयोग करते हैं। लोग महाशिवरात्रि के अवसर पर गंगा तालाब से पवित्र जल लाकर शिवजी को चढ़ाते हैं। शादी के दिन एक लोटे जल से बरातियों का स्वागत् करते हैं। यज्ञ करते समय पंडितजी जल से आचमन कराते हैं और आशीर्वाद देते हैं। हम गंगा स्नान के दिन गंगा माँ की पूजा भी करते हैं। हम पवित्र जल से सूर्य को अर्घ देते हैं और तुलसी के पौधे को भी चढ़ाते हैं।
जब पानी मौसम के अनुसार बरसता है तो चारों ओर हरियाली छायी रहती है। खेतों में उपज खूब होती है, फल-फूल होते हैं, अनाज भर-पूर होता है। सरदी के मौसम में कम बारिश होती है। जलाशयों में पानी कम हो जाता है। कभी-कभी भारी सूखा भी पड़ता है इसीलिए लोग महायज्ञ करते हैं और हरपरेवरी गाते हैं जिससे वर्षा भी होने लगती है और हमारे जलाशय भी भर जाते हैं।
परन्तु एक ओर जहाँ पानी वरदान बनकर लोगों को जीने और उन्नति करने का मौका देता है तो दूसरी ओर प्रलय बनकर लोगों को बेघर और बेसहारा कर देता है। जब ज़रूरत से ज़्यादा पानी बरस जाता है तो वह बाढ़ बनकर सारा कुछ बहा ले जाता है, नष्टज कर जाता है और हानि पहुँचाता है। जब कहीं पानी बहुत दिनों तक ठहर जाता है वह सड़ जाता है और वातावरण को दूषित कर देता है। जिसके कारण मच्छर भी पैदा हो जाते हैं। लेकिन हमारे सरकार द्वारा इसके निकास का प्रबंध भी किया गया है। हमारे वातावरण की रक्षा के लिए अनेक कार्य किए जाते हैं।
पानी प्रकृति की देन है। इसे बेकार बहने नहीं देना चाहिए। घरेलु कार्य करते समय हमें पानी व्यर्थ में बहने नहीं देना चाहिए बल्किा नल बंद कर देना चाहिए। पानी का दुरूपयोग नहीं अपितु सदुपयोग करना चाहिए।
नैतिक मूल्य
हर एक घर-परिवार में माता-पिता अपने बच्चों को स्नेह, प्रेम-पूर्वक पालते हैं। उनको धर्म एवं संस्कृति सिखाते हुए पालन-पाषण करते हैं। परन्तु आजकल देखा जा रहा है कि हमारे समाज में नैतिक मूल्यों का अभाव होता जा रहा है। इस आधुनिक युग में लोग भी बदलते जा रहे हैं। वे अपना रहन-सहन, धर्म-संस्कृति आदि भूलते जा रहे हैं।
माता-पिता अपने कामों में इतने व्यस्त होते जा रहे हैं कि उन्हें बच्चों के लिए भी समय नहीं मिलता। दिन-रात काम करने के बाद उन्हें बच्चों के साथ बैठकर बातचीत करने का वक्ते नहीं मिलता। बच्चे स्कूल में क्या करते हैं, उनका गृह्कार्य आदि देखने का समय भी नहीं मिलता। इसीलिए बच्चे भी आजकल मनमानी करने लगे हैं।
बच्चे अपने बड़ों का आदर करना भूल गए हैं। कहीं जाने के लिए वे अपने बड़ों से आज्ञा भी नहीं माँगते। परन्तु उन्हें जो भी चाहिए ज़िद करके माँग लेते हैं। माता-पिता उनके ज़िद के आगे बेबस हो जाते हैं। स्कूल में बच्चे गलत व्यव्हार करते हैं। कक्षा में अध्यापकों की बात नहीं मानते हैं। ऐसा इसलिए होता हैं क्योंकि वे घर से ही बिगड़े होते हैं। वे अध्यापक को उल्टा जवाब देने लगे हैं। हाल ही में एक छात्र अध्यापक को मारने लगा और दूसरे बच्चे अध्यापक को छुड़ाने गए। एक समय ऐसा था जब छात्र शिक्षक को अपना गुरू मानते थे और आदर-भाव दिखाते थे। उनसे ऊँची आवाज़ में बात करने से भी कतराते थे। लेकिन अब ऐसे विद्यार्थी ही कहाँ जो दूसरों की बात सुने। बच्चे अध्यापकों के पीने की चीज़ों में कुछ मिला देते हैं जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है।
एक ज़माना ऐसा था जब बच्चे सीधे-सादे थे और अच्छे बच्चों की तरह स्कूल जाते थे और मन लगाकर पढ़ते भी थे तथा सीधे अपने घर लौटते थे। परन्तु आजकल जब स्कूल की छुट्टीद होती है तब लड़के-लड़कियाँ जहाँ-तहाँ घूमने जाते हैं। माता-पिता सोचते हैं कि उनका बच्चा/ब्च्ची त्यूशियन लेने गया/गयी है। माता-पिता सोचते हैं वे पढ़ रहे हैं। फिर जब लड़कियाँ छोटी उम्र में गर्भवती हो जाती हैं तब माता-पिता के सिर शर्म से झुक जाते हैं। उन में नैतिक मूल्य नहीं होता इसलिए वे गलत कार्य कर जाते हैं। लड़के चरस-गांजे का शिकार हो रहे हैं। “कहाँ जा रहा है यह समाज?”
बच्चे अपने दोस्तों के साथ सिनेमा, रेस्तोरेंट जाने के लिए माँ-बाप के पैसे भी चुराते हैं। वे उनसे झूठ भी बोलते हैं। माता-पिता अगर समझाने जाए तो वे उनसे लड़ते हैं और उल्टा जवाब भी देते हैं। बच्चे बड़े भी हो जाते हैं और काम पर जाते हैं तो वहाँ भी अपना अकड़ दिखाते हैं। जिसकी वजह से उनको काम में भी समस्याएँ होती हैं। अगर बचपन से ही उन्हें अच्छी बातें सिखायी जातीं तो वे दुर्व्यवहार न करते। जब शादी भी होती है तो घरों में समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं। पति-पत्नी एक-दूसरे से झगड़ते हैं। वे एक शान्त भाव से समस्या का समाधान नहीं ढूँढते बल्कि यह भी देखा गया है कि घर से बाहर दूसरे से नाजाइज़ संबंध रखते हैं जो फलस्वरूप बात तलाक तक पहुँच जाती है।
अगर हमारे समाज एवं घरों में धर्म, संस्कृति तथा नैतिक मूल्यों की कमी न होती तो शायद हमारे बच्चे, बड़े, बूढ़े इस बात का ध्यान रखते कि हमारा जीवन कितना मूल्यवान है और खुशी से जीने योग्य है।
“मैं हूँ कमप्यूटर”
पुराने समय में लोग दफ्तरों, कार्यालयों का सारा काम कागज़-कलम से करते थे। कुछ ढूँढना होता था तो इतने सारे कागज़ों से ढूँढने में समय लगता था। फिर तेज़ी से बढ़ती इस दुनिया में मेरा निर्माण हुआ। जिसे लोगों ने नाम दिया “कमप्यूटर”। मेरा निर्माण लोगों के हित के लिए हुआ ताकि लोग मेरे प्रयोग से अपना काम आसान कर सके। किसी विषय पर खोज-कार्य करना होता था तो लोग बड़ी-बड़ी पुस्तकों में ढूँढते थे जिसे “एनसायक्लोपेडिया” कहते हैं। आजकल इसका कम प्रयोग होता है। मेरे प्रयोग से लोग अनेकों कार्य करते हैं। जिस कमप्यूटर में “इन्टरनेट” की सुविधा है लोग उसके द्वारा विभिन्न खोज-कार्य कर सकते हैं।
लोग देश-विदेश में बैठे मित्रों-परिवारों से “वेबकाम” द्वारा एक-दूसरे को देखकर बातचीत कर सकते हैं। जब बच्चे अपने माता-पिता से दूर विदेश में पढ़ाई करने जाते हैं तो वे एक दूसरे से कभी भी संपर्क रख सकते हैं। माँ को भी संतुष्टि हो सकती है कि बच्चे किस हालत में है एवं कैसे रह रहे हैं। लोग इ-मेल द्वारा किसी को भी जल्द और तुरन्त संदेश भेज सकते हैं।
आजकल मैं सभी लोगों के लिए इतना आवश्यक और उपयोगी बन गया हूँ कि मुझे आराम भी नहीं मिलता। हर एक क्षेत्र में, ऑफ़िस में यहाँ तक कि घर में भी मेरी आवश्यकता बढ़ती जा रही है। स्कूल, कालेज जाने वाले विद्यार्थी भी मेरी सहायता से “प्रोजेक्त” आदि करते हैं। छोटे-छोटे बच्चे कमप्यूटर में अनेक प्रकार के खेल भी खेलते हैं। बड़े-बड़े व्यापारी मेरी सहायता से अपने कामों को “प्रोजेक्टर” द्वारा प्रस्तुत करते हैं। लोगों को इतना काम होता है कि अब ज़्यादातर लोग “लापतोप” का प्रयोग करते हैं। वे इस साधन को अपने साथ जहाँ चाहे ले जाते हैं और अपना काम आसानी से करते हैं।
इतना ही नहीं बैंकों में भी मेरी सुविधा से करोड़ों रूपयों का हिसाब-किताब की जाती है। लोग आसानी से अपने पैसों का लेन-देन कर सकते हैं। मेरी मदद से लोग “ए-ती-एम” द्वारा चन्द मीनटों में पैसे निकाल और रख सकते हैं। लोग घर बैठे “इ-शापिंग” से खरीदारी भी करते हैं और जल्द प्राप्त भी कर लेते हैं। मुझे ज़्यादा बेहतर जानने और समझने के लिए बड़े-बड़े इनजिनियर सफलता पूर्वक जगहों में काम करते हैं। वे कितने खोज-कार्य करते रहते हैं।
जहाँ सैंकड़ों लोग मेरा सदुपयोग करते हैं वैसे ही बहुत ऐसे लोग हैं जो मेरा दुरूपयोग भी करते हैं। नवजवान लड़के-लड़कियाँ मेरा गलत उपयोग करते हैं। वे अपने उम्र से ज़्यादा बातें जानने की इच्छा रखते हैं और मेरे उपयोग से गंदी तस्वीरें और फ़िल्में भी प्राप्त करते हैं। जिससे वे स्वयं बिगड़ जाते हैं और मुझे इसका ज़िम्मेदार ठहराते हैं। कुछ ऐसे गलत व्यक्ति भी होते हैं जो इन्टरनेट द्वारा दूसरों के पैसे भी चुरा लेते हैं। चारों ओर करोड़ों की हेरा-फेरी होती है। मुझे शर्मिंदगी महसूस होती है जब मुझे ऐसे लोग प्रयोग करते हैं। लोग असली सी.डी के कोपी बनाकर सस्ते दामों में बेचते हैं जो कानूनन जूर्म है।
कैसे इन गलत कामों को रोका जाए! इन समस्याओं का समाधान कैसे ढूँढा जाए! अगर लोग अपने-आप न बदले और मेरा गलत उपयोग न करके सदुपयोग करे तो बेहतर होता!
bohot bekar hai
निबंध
हमारे देश में हिंदी बाल साहित्य की कमी तथा उसका निवार्ण
किसी भी भाषा के प्रति अभिरुचि अथवा झुकाव का सम्बंध उसके व्यवहार तथा प्रकाशित व प्रचलित साहित्य से अवश्य होता है । साहित्यिक रचनाओं के द्वारा न केवल हमारा मनोरंजन और ज्ञान वर्द्धन होता है बल्कि साथ-साथ भविष्य में व्यक्ति का उस भाषा के प्रति लगाव भी उन्हीं कृतियों के सहारे परिपोषित होता है । आगे चलकर व्यक्ति उस भाषा के प्रति कितनी रुचि दिखाएगा, उसका अध्ययन किस स्तर तक करेगा, उस भाषा एवं साहित्य के विकास के लिए अथवा उसकी समृद्धि के लिए कितना योगदान देगा आदि बातों का सम्बंध उस भाषा के प्रति लगाव एवं अपनेपन अथवा आत्मीयता की भावना से है । अब हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि किस स्तर या अवस्था से व्यक्ति के मन में भाषा के प्रति यह झुकाव जन्म लेता है ?
इसमें कोई संदेह नहीं कि हालाँकि व्यक्ति अपने जीवन की प्रौढ़ अवस्था में भी अनेकों भाषाएँ सीख सकता है फिर अधिकांश स्थितियों में लोग बाल्यावस्था से ही किसी भाषा अथवा विषय के प्रति अभिरुचि या झुकाव बना लेते हैं । यदि पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो, किसी भाषा के व्यवहार – बोल-चाल या साधारण जिवन में उसके प्रयोग – में कमी होने के उपरांत भी व्यक्ति उस भाषा के प्रति अपनी रुचि बनाए रखता है । यह समर्थन प्रायः उसे बाल साहित्य से प्राप्त होता है ।
बाल-साहित्य का सम्बंध उन कहानियों, कविताओं अथवा लेखों से होता है जो बच्चों के लिए निमित होते हैं । हमारे बच्चों को ऐसी रचनाएँ कम मिलती हैं जिनका स्तर उनके मानसिक विकस के अनुकूल हो या जो उनके वातावरण, आयु, अनुभुतियों, सपनों आदि की झलक देते हों । हमारे बच्चों को बाल साहित्य के साथ समपर्क में आने का सौभाग्य हमारी प्राथमिक स्तर के लिए निर्धारित पाठ्य-पुस्तकों में मिलता है और कुछ स्थानीय व विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में छपी रचनाओं में भी प्राप्त होता है । क्या यह पर्याप्त है ?
सच पूछा जाए तो यह कदापि पर्याप्त नहीं । वास्तव में जिस बाल साहित्य की उपलब्धी से हम बच्चों में अभिरुचि निर्माण की हम बात कर रहे हैं वह नगण्य के बराबर है । जितनी भी बाल पत्रिकाएँ अथवा पुस्तकों में बच्चों के लिए निमित रचनाओं के रूप में प्रकाशित होकर आती हैं वे बड़े लोगों द्वारा लिखी गयी होती हैं । बच्चों द्वारा रचित कविताएँ, कहाँनियाँ, लघु-कथाएँ आदि रचनाएँ जिनमें बाल-परिकल्पना का भोलापन, बच्चों कि मनोवृत्ति की झलक, स्वाभाविक्ता और अस्वाभाविक्ता के झमेलों से परे उड़ने की कोशिश आदि बातें स्थानिय बाल-साहित्य से नदारद हैं ।
ऐसी स्थिति में, हमारे सामने प्रचलित बाल-साहित्य बच्चों पर थोपे हुए बाल साहित्य के समान लगता है । क्या यह आवश्यक नहीं बड़ों द्वारा लिखी रचनाएँ पढ़वाने के साथ-साथ बच्चों को भी लिखने का, इनाम पाने की लालच से नितांत अलग होकर अर्थात् स्वप्रेरणा के सहारे प्रोत्साहन दिया जाए ? आज एक ऐसे मंच की स्थापना करने की आवश्यक्ता है जहाँ मेधावी छात्रों की सुव्यवस्थित-सुपोषित भाषा में लिखी रचनाओं के साथ-साथ सामान्य स्तर के छात्रों की कलात्मक अभिव्यक्ति या कल्पानाशील अभिव्यंजना को भी स्थान मिले । इस प्रकार, शुद्ध बाल साहित्य के प्रति अभिरुचि सभी स्तर के छात्रों में उत्पन्न होने लगेगी और बच्चे हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति आकर्षित होंगे ।
पत्र लेखन
कुछ दिन पहले तुम्हारा मित्र सड़क-दुर्घटना में गम्भीर रूप से घायल हो गया था । इस बारे में किसी दूसरे मित्र को पत्र लिखकर सूचित करो ।
००४ पॉल सातो गली
वाक्वा
२९/११/२०११
प्रिय मित्र रमेश,
प्यार भरा नमस्कार !
कैसे हो ? आशा है कि तुम अपने परिवार के साथ सकुशल होगे । ईश्वर की कृपा से यहाँ पर सब ठीक चल रहा है । पिछ्ले महीने मैं तुम्हारी बहन की शादी में नहीं आ पाया, उसके लिए मुझे माफ कर देना । हम तो आने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि मेरी दादी का स्वास्थ अचानक बिगड़ गया और पिताजी को तुरंत उन्हें अस्प्ताल ले जाना पड़ा पड़ा । उस दिन के बाद न ही तुमने कोई पत्र लिखा और ही हम मिल पाए । मैं भी तुम्हें पत्र नहीं भेज पाया क्योंकि मैं भी दुकान में पिताजी की मददतई कर रहा हूँ और पूरा दिन दुकान में ग्राहकों को देखते-देखते थक जाता हूँ तो रात में पत्र लिखने की हिम्मत ही नहीं होती है । किसी भी तरह थोड़ी हिम्मत जुटाकर मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ ।
रमेश, एक बुरी खबर है ! शायद तुम्हें पता नहीं होगा कि कवि एक सड़क दुर्घटना के बाद गम्भीर रूप से घायल है । वह अभी अस्पताल में है । मुझे भी यह बात मालूम नहीं थी । आज सुबह मैं अपने पिताजी के साथ बाजार गया था । बाजार में मुझे कवि के बड़े भैया मिले थे । उनसे पता चला कि लगभग एक सप्ताह पहले कवि की साईकिल से एक गाड़ी के साथ जा टकराई थी । उस दुर्घटना में कवि को सिर पर गहरी चोट लगी और उसका दाँया हाथ टूट गया । गाड़ीवाला तो भाग गया । कवि वहीं, खून से लथपथ पड़ा रहा । सौभाग्य से, उसी समय उसका ममेरा भाई वहाँ से गुजर रहा था । उसने पुलिस को फोन किया और एक गाड़ी रोककर कवि को अस्पताल पहुँचाया । उसके माता-पिता को कुछ भी पता नहीं था । अस्पताल से डॉकटरों ने फोन करके कवि के परिवार को सूचना दी और उन्होंने चार बॉटल का प्रबंध करने के लिए कहा ।
वह पाँच दिनों तक आई. सी. यू. में बेहोश पड़ा रहा । परसों ही उसे होश आया है । दोपहर में मैं अस्पताल में उसे देखने गया था । वह पलंग पर ही पड़ा रहता है । डॉकटरों ने उसे सूप जैसे तरल भोजन खिलाने की अनुमति दी है पर उसे ज्यादा बोलने से मना किया है । उसकी हालत देखकर मेरी आँखों से आँसू निकल आए । मेरी उससे बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई । दूर से ही मैं लौट जाना चाहता था, परन्तु उसके पिताजी मुझे रोक लिया और कवि के सिराने बैठ्ने के लिए कहा । मैं कुछ कह नहीं पा रहा था, कवि ने कुछ कहने की कोशिश की किंतु उस्के शब्द अस्पष्ट थे । मैंने उसकी बात बिना समझे ही हाँ कह दी । उसने तुम्हारा नाम लिया, शायद वह तुमसे मिलना चाहता है ।
रमेश, मैं आगे क्या लिखूँ मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है । हाँ, यदि तुम इधर से होकर, कवि को देखने के लिए, बेल रोज के अस्पताल जाओगे तो मुझे भी लेते जाना ।
तुम्हारा मित्र,
मनोज.
संवाद लेखन
अपने जम्नदिन के अवसर पर आयोजित पार्टी में अपने मित्र अमित को आप अमंत्रित करते हैं । इस संदर्भ में एक संवाद लिखिए ।
मैं - हलो !
अमित – हाँ हलो ! कौन बोल रहा है ?
मैं – मैं मनोज बोल रहा हूँ ! क्या मैं अमित से बात कर सकता हूँ ।
अमित – नमस्ते मनोज ! मैं अमित ही हूँ । बोलो !
मैं – नमस्ते अमित ! तुम कैसे हो ?
अमित – मैं तो ठीक हूँ यार, तुम अपनी सुनाओ !
मैं - मेरी भी जिंदगी मजे से कट रही है । मैं ने तुम्हें एक खास बात बताने के लिए फोन किया है ।
अमित- कहो ! तुम्हें मेरी किसी प्रकार की सहायता की जरूरत है ? हिचकिचाओ नहीं ! यदि मुझसे बन पड़ी तो अवश्य ही तुम्हारी मदद करूँगा ।
मैं – नहीं यार ! ऐसी कोई बात नहीं । मैं इतना भी मतलबी नहीं कि केवल संकट की घड़ी में तुम्हें यान करूँ ।
अमित – तो फिर बताओ न बात क्या है ? क्यों दिमाग का दही कर रहे हो ?
मैं – बात यह है कि आते रविवार को मेरा जन्मदिन है ।
अमित – वाह ! इस साल तुम अठारह के हो जओगे न ?
मैं – हाँ !
अमित – तो कोई पार्टी-वार्टी दे रहे हो या नहीं ।
मैं – उसी लिए ही तो तुम्हें फोन किया है न ! अगले रविवार को ठिक पाँच बजे मेरे घर पहुँच जाना । हाँ राहुल और अनवर को भी साथ लेते आना ।
अमित – डॉट वॉरी यार ! हम समय से पहले पहुँच जाएँगे ।
मैं – हाँ, जैसे कि मैं तुम्हारे देर से आने की आदत नहीं जानता हूँ ।
अमित – तुम चिंता मत करो ! हम चार बजे ही आ जाएँगे ।
मैं – ठीक है ! मैं फोन काटता हूँ, अभी और कई दोस्तों और रिस्तेदारों को आमंत्रित करना है । अच्छा बाई !
अमित – बाई !
भाषण लेखन
अपनी पाठशाला में आयोजित खेल दिवस के उदघाटन के अवसर पर मुख्य-अध्यापक द्वारा दिए जाने वाले भाषण लिखिए ।
प्रिय अध्यापको, सहयोगियो, छात्र-छात्राओ और अविभावको!
नमस्ते !
जैसे कि आप जांते होंगे कि आज हम अपना खेल दिवस मनाने जा रहे हैं इसीलिए कक्षा कि चाहरदीवारी से निकलकर हम सभी खेलकूद के इस मैदान में एकत्रित हुए हैं । आप जानते ही है कि खेलकूद और व्यायाम हमारे लिए कितना आवश्यक हैं । अपने दैनिक जिवन की होड़ में हम प्रायः इस बात को भूल जाते हैं । महान युनानी विद्वान प्लाटो ने सही कहा है कि एक स्वस्थ शरीर में ही एक स्वस्थ दिमाग रह सकता है । अतः यदि हम जीवन में सुखी एवं सफल बनना चाहते हैं तो हमें अपने स्वास्थ्य की ओर ध्यान भी देना चाहिए ।
छात्रों के जिवन में खेलकूद का विशेष स्थान है । शिक्षा-मंत्राल्य इस बात को भली भाँति समझता है कि हमारे छात्रों के सर्वांगीण विकास में शारीरिक विकास कितना महत्वपूर्ण है इसीलिए तो हमारी दिनचर्या में भी खेलकूद विषय को सम्मिलित किया गया है । शिक्षा-मंत्रालय खेलकूद मंत्रालय के सहयोग से साल भर खेलकूद सम्बंधी अनेकों गतिविधियाँ आयोजित करता रहता है । हमारे छात्र भी उन प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं ।
पिछ्ले साल हमारे छठी कक्षा के बच्चों को राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर आने का आवसर मिला । इस साल ४०० मीटर दौड़ में हमारी चौथी कक्षा की चार लड़कियाँ जॉन चार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुनी गयी हैं । यह हमारी पाठशाला के लिए बड़ी खुशी की बात है और हमें उन बच्चों पर गर्व होना चाहिए । आशा है कि ये बच्चे और दूसरे बच्चे भी अच्छे खिलाड़ी बने और राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपने तथा अपने माँ-बाप के नाम रोशन करे ।
बच्चों की अपनी-अपनी प्रतिभाएँ होती हैं, जिसे उभारने तथा पोषित करने में अविभावक और अध्यापक सहयोग देते हैं । आज बच्चों की शारीरिक क्षमताओं के साथ-साथ उन्हीं प्रतिभाओं की झलक देखने को मिलेगी । हमने बच्चों की आयु, उनकी शारीरिक क्षमताओं एवं स्तर को ध्यान में रखते अनेक गतिविधियाँ रखी हैं । आशा हैं कि आप इन सभी कार्य्क्रमों का आनंद लेंगे एवं प्रतियोगियों को प्रोत्साहित भी करेंगे । आपके ध्यान के लिए धन्यवाद !
dimaaaaaaaaaaaaaaaaaaak kharab
Fourth blog for assignment
झुकी हुई मीनार
पीसा इटली का एक छोटा शहर है. वहाँ एक मीनार स्थित है, जो झुकी हुई मीनार के नाम से जाना जाता है. इसे बनने में १७७ साल लगे. जब वर्ष १११७ में इसका निर्माण शुरू हुआ तभी इसके वास्तुशिल्पी (आर्टिटेक्ट) को यह पता चल चुका था की यह टेढ़ी बनी है. पर यह न तो तब गिरी और अब यह इतने सालों बाद भी ज्यों की त्यों खड़ी है. साल १९९० में इसे सीधा करने का काम भी किया गया. पर तब भी यह पूरी तरह सीधी नही हो पाई. इसके झुके होने की वजह से ही इसका नाम ‘लीनिंग टावर ऑफ पीसा’ रखा गया यानी पीसा की खुकी हुई मीनार. इसकी लंबाई एक तरफ ५५.८६ मीटर और दूसरी तरफ ५६.७ मीटर.
१११७ में पीसा अमीरों का शहर था. ये लोग अच्छे नाविक और व्यापार थे. ये लोग दूसरे देशों (आफ्रिका, स्पेन आदि)में व्यापार करने जाते थे. इन लोगों का रुतबा इटली के दूसरे शहर फ्लोरेंस के लोगों को पसंद नहीं था. कई बार दोनों शहरों के बीच युद्ध भी हुआ. तभी पीसा के लोगों ने सोचा क्यों न अपने शहर का सम्मान बढ़ाने के लिए एक विशाल मीनार बनवाई जाए.
११७३ में मीनार बनाने का काम शुरू हुआ. १२ साल में इसकी तीन मंज़िलें बनीं लेकिन तभी वास्तुशिल्पी (बोनानो पीसानो) को लगा कि यह मीनार सीधी नहीं है. कारण यह था कि मीनार बनाने की लिए घटिया सामान का इस्तेमाल किया गया था. इसके बाद इसके निर्माण पर रोक लगा दी गई.
उस समय भी पीसा युद्ध में लगा था. लोगों को डर था कि कहीं युद्ध में इस इमारत को नुकसान न पहुँचे. ११९८ में इसकी तीसरी मंज़िल पर किसी तरह काम रुक गया.
१२७१ में लगभग ८०-९० साल बाद, एक दूसरे वास्तुशिल्पी (जियोवानी द सिमोन) ने मीनार का क्लां चालू किया. उसने सोचा कि मीनार झुकी हुई है, इसलिए तीसरी मंज़िल के बाद की मंज़िलों को एक तरफ से ऊँचा कर दिया जाना चाहिए. इससे हुआ क्या… मीनार दूसरी तरफ से झुकने लगी. १२८४ में मीनार का काम एक बार फिर रोक दिया गया. तब तक मीनार की ६ मंज़िलें बन चुकी थीं और सातवीं मंज़िल का काम चल रहा था. इस समय पीसा के लोगों को युद्ध में हार का सामना करना पड़ा था.
पीसा की इस मशहूर इमारत की सातवीं मंज़िल का काम १३१९ में टिमासो द आंद्रेई नेपूरा हुआ. इसके बाद इसकी आठवीं मंज़िल भी बनाई गई और फिर उस पर सात घंटे लगाए गए. ये सातों घंटे सरगम के सात स्वरों की तरफ इशारा करते हैं.
१९६४ में इटली की सरकार ने सोचा, क्यों न इस मीनार को सीधा किया जाए. सरकार को डर था कि कहीं यह इमारत एक दिन गिर न जाए.१९९० में इसकी मरम्मत का काम शुरू हुआ. इसके लिए मीनार के उत्तर की तरफ की ७० टन ज़मीन खोदी गई. सात साल बाद लगा कि यह मीनार ४८ सेंटीमीटर सीधी हुई है. इसके लिए मीनार के अंदर हाईटेक कैमरा लगाया गया था. इस काम में ११ साल का समय लगा. इस समय इमारत को बंद कर दिया गया था. दिसंबर २००१ में इसे फिर खोला गया.
मई २००८ में एक बार फिर ७० मिट्रिक टन ज़मीन खोदी गई. इसके बाद इंजीनियरों ने कहा की अब यह मीनार पूरी तरह से स्थिर है और अब यह २०० साल और एकदम सीधी खड़ी रहेगी.
इस इमारत को दुनिया के अजूबों में भी शामिल किया गया. हर साल इसे देखने के लिए सैकरों लोग इटली पहुँचते हैं.
विनम्रता एक बहुमूल्य रत्न है जो स्वयं मनुष्य अपने आप में प्रकट करने क्षमता रखता है मनुष्य को प्राणियों में सबसे अधिक विनम्र माना गया है । इस दॄष्टि से नम्रता और मधुरता ही उसकी बड़ी पूँजी है । अच्छे विचार और सद्भवना दोनों की जननी विनम्रता है ।
देखा गया है कि जब लोग एक दूसरे से वार्तालाप करते हैं तो जैसे चाहे वाणी का प्रयोग करता है । ज़्यादातर आज की पीढ़ी को ले-वे अपने बड़ों का आदर नहीं करते हैं । वे उनसे कटु-वचन कहते हैं । जबकि उनसे विनम्र भाव से बात मधुरता रहनी चाहिये । सभी से बोलते हुए वाणी में नम्रता और मधुरता रहनी चाहिए । इसका अलौकिक वर्णन महात्मा कबीरदास जी ने अपने श्लोकों में किया है ।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन कौं सीतल करै, आपहु सीतल होय ।
अत: सभी से विनम्रतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए । अपने व्यवहार में अभिमान तथा अकड़ जैसे दुगुणों का स्थान कदापि न रखें, चाहे वह अपने से छोटा ही क्यों न हो ।
हमें सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए, अकड़ नहीं दिखाना चाहिए, क्रोध में आकर किसी से भी कटु वाणी नहीं बोलना चाहिए । छ्ल कपट कभी नहीं करना चाहिए । सद्भवना और सुव्यवहार की प्राप्ति दूसरों से तभी कोई ग्रहण कर पाएगा जब वह स्वयं वैसे ही व्यवहार दूसरों को अपर्ण करेगा ।
अगर हमारी भाषा में, व्यवहार में नम्रता होगी तभी हम शिष्ट और सभ्य माने जायेंगे । जो लोग विनम्रता से कोसों दूर भागते हो, उसे तो लोग अनपढ़ तथा गँवार के रूप में देखते हैं । कहा गया हैं :-
’विद्या ददाति विनय विनयात याति पात्राताम ।’
विद्या विनम्रता देती हैं । विनम्रता से ही योग्यता आती है । वास्तव में जो जितना अभिमानी और बकवादी है, वह उतना ही अधर्म तथा असभ्य है । आजकल पति-पत्नि के बीच भी विनम्रता नही है । वे एक-दूसरे से जैसे चाहे बातचीत करते हैं । न पति पत्नि की इज़्ज़त करत है न पत्नि पति की । जिस करण झगड़े भी होने लग्ते हैं । कभी बात तलाक तक पहुँच जाती है ।
अगर हम इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो हमें पूर्ण रूप से यही प्रमाण मिलता है कि आज तक कोई महापुरुष ऐसा नहीं हुआ जो विनम्र न हो । विनम्रता सज्जनों का आभूषण है ।
गोस्वामी तुलसीदास जी फल प्रदान करने वाले वृक्ष की तुलना गुणी व्यक्ति से करते हैं :-
नमन्ति फलिनो वृक्षा: । नमन्ति गृणिनो जना: ।
शुष्क वृक्षाश्य मुर्खारश्य न नमन्ति कदाचन ॥
फलवाले वृक्ष जैसे विनम्र होकर झुक जाते हैं, उसी प्रकार गुणी जन भी विनम्रतापूर्वक व्यवहार करते हैं ? जैसे सूखे पेड़ नहीं झुकते, उसी प्रकार मुर्ख व्यक्ति नहीं झुकते । सन्त प्रवर तुलसी जी मधुर वाणी की प्रशंसा करते हुए इस श्लोक में कहते हैं कि ’तुलसी’ मीठे वचन वे सुख उपज चहूँ ओर
बसीकरन एक मन्त्र है, तजि दे वचन कठोर ।
मीठी बोली तथा विनम्रती से भरी हुई वाणी से ही चारों ओर अमन, सुख तथा शन्ति का वातावरण छाया हुआ है ? विनम्रता जैसे दिव्य सौन्दर्य के कारण ही व्यक्ति महान बनता है ।
assignment 4:
वैज्ञानिकों को मिले पृथ्वी के आकार के ग्रह
अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की तरह दिखने वाले ग्रहों को ढूंढ निकाला है। ये ग्रह सूर्य जैसे एक सितारे का चक्कर काट रहे हैं। अंतरिक्ष जांच दल ने संभावना जताई है कि पृथ्वी जैसे दिखने वाले इन ग्रहों में जीवन भी हो सकता है। जांच दल ने इन ग्रहों को सौर मंडल के बाहर की सबसे बड़ी खोज बताया है।
अमरीका में कैम्ब्रिज के हार्वर्ड-स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिज़िक्स के डॉक्टर फ्रैंकोइस फ्रेसिन ने कहा कि ये खोज पृथ्वी जैसे ग्रहों की खोज में एक नए दौर की शुरुआत है।
हालांकि माना जा रहा है कि खोजे गए दोनों ग्रहों का तापमान इतना ज़्यादा है कि उनमें जीवन का पनप पाना मुश्किल है। लेकिन डॉक्टर फ्रेसिन के मुताबिक़ कभी ये ग्रह अपने सूर्य से दूर, इतने ठंडे थे कि उनके सतह पर जीवन के लिए ज़रूरी पानी की मौजूदगी अनुकूल थी।
उन्होंने बताया, ”हमें पता है कि ये दोनों ग्रह अपने सूर्य के क़रीब जा चुके है।” माना जा रहा है कि इन दोनों में से बड़ा वाला ग्रह पृथ्वी जैसा हो सकता है। इसका आकार पृथ्वी जैसा ही है और हो सकता है कि इसका तापमान भी पृथ्वी जैसा ही रहा हो।
इनमें केप्लर 20 एफ़ नाम के ग्रह का आकार पृथ्वी जितना ही है। खोजे गए दोनों ग्रह पृथ्वी के मुक़ाबले अपने सूर्य से ज़्यादा क़रीब है। ये दोनों ग्रह अपने सूर्य के क़रीब जा चुके है। पृथ्वी की ही तरह इन ग्रहों की भी बनावट एक तिहाई लौह पदार्थ से और बाक़ी सिलीकेट की परत हो सकती है।
डॉक्टर फ्रेसिन के मुताबिक़ पृथ्वी की ही तरह इन ग्रहों की भी बनावट एक तिहाई लौह पदार्थ से और बाकी सिलीकेट की परत की हो सकती है। उनका मानना है कि केप्लर 20एफ़ के वातावरण में भाप की मोटी परते जमी हो सकती है।
ये खोज काफ़ी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये पहला मौक़ा है, जब पता चला है कि सौर मंडल के बाहर भी पृथ्वी जैसे ग्रह हो सकते है। इससे ये भी पता चलता है कि केप्लर टेलिस्कोप से हज़ारों प्रकाश वर्ष दूर छोटे ग्रहों को भी खोजा जा सकता है।
इस टेलिस्कोप ने अब तक 35 ग्रह खोजे है, जिनमें से 20 एफ़ को छोड़कर बाक़ी सभी ग्रह पृथ्वी से बड़े हैं।
डॉक्टर फ्रैंकोइस फ्रेसिन और उनके जांच दल की अभी तक की सबसे बड़ी खोज पृथ्वी से ढ़ाई गुना ज़्यादा बड़े एक ग्रह की है, जो ‘गोल्डीलॉक्स ज़ोन’ में पाया जाता है।
ये वो जगह होती है जहां न तो ज़्यादा ठंडी और न ही गर्मी पड़ती है। हालांकि डॉक्टर फ्रेसिन का मानना है कि ये दोनों ग्रह ज्यादा बड़ी खोज है।
मोरिशस में भोजपुरी
सभी लोगों की अपनी-अपनी भाषा होती है। किसी का किसी रूप में अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं। भारत से जब हमारे पूर्वज़ों को सख्य-भाव दिखाकर लाया गया था तब भी भाषा लेकर आए थे। हमारे पूर्वज़ों की भाषा भोजपूरी थी। वह भाषा बहुत समृद्ध थी। हर पल लोग इसी का प्रयोग करते थे। दुख-सुख में, पूजा-पाठ में अदान-प्रदान करते थे। यह उनकी आत्मा की भाषा थी।
भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों, जैसे आंध्र प्रदेश, बिहार, कल्कत्ता, बम्बई, आग्रा, आरा आदि-आदि से वे एक साथ आए थे। मुसलमान भी साथ में थे।
मोरिशस में आकर सभी ने भोजपुरी को अपनाया। एक दूसरे के विचारों के आदान-प्रदान करने के लिए यह भोजपुरी ही एक सशक्त माध्यम बन गई थी। सभी के लिए एक ही बैठक, एक ही सभा-सोसाइटी थी और एक ही रूप में पूजा आदि-आदि होती थी।
बैठकों के बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। सभी वहां एक साथ बैठते, सत्संग करते, पूजा-पाठ करते, जिथि-त्योहार मनाते थे। विवाह आदि का आयोजन भी होता था। कभी-कभी बैठक न्यायालय का रूप ले लेता था। लोग मिलकर अपनी समस्याओं का समाधान यहीं कर लेते थे, पंचायत में।
हर परिस्थिति के गीत भोजपुरी में पाये जाते थे। जन्म से लेकर मत्यु तक के गीत भिन्न-भिन्न रूपों में पाये जाते थे। उनको सभी कण्ठस्थ था। राग भी उत्तम था। जीवन के हर एक अंग और परिस्थिति पर गीत होते थे। भोजपुरी तो एकदम सरल भाषा थी। अनपढ़ लोग भी जल्दी ही से अपना लेते थे।
जहां खुशी के गीत थे वहां मज़दूरों की पीड़ा की भी झलक मिलती थी। बीरहा में हमें यह दर्द दिखाई देता है।
भोजपुरी भाषा के शब्दों के साथ-साथ क्रियोली के एक-दो शब्द आ जाते थे। जैसे:
१. मुसे मनेस ( Mr. Maness) के मुलवा जर गइले हो, मुसे मनेस के मुलवा …
२. लाली लाली (line, line) कान (ईख) पलांते (बोई) मिराई में मकई…
इन गीतों में परिस्थितियों की झलक, दुख-दर्द की झलक आदि मिलती थी।
भोजपुरी का फैलाव मोरिशस में हो गया, यहां तक कि गैर जाति के लोग जैसे-चीनी, हब्शी (creole) आदि इन्हें फटाफट बोलने लगे। गाना-बजाना इस भाषा में करने लगे। भोजपुरी भाषा मोरिशस की भूमि के कण-कण में बस गई। पेड़-पौधों में प्रवेश कर गई। जिधर भी जाते थे सभी को भोजपुरी की ही भाषा सुनाई देती थी। हमारे पूर्वज़ों पर कोड़ों की मार पड़ती थी और अनेक तरह के कष्ट दिये जाते थे, फिर भी वे सहते रहते थे।
एक बार महात्मा गांधी जी दक्षिण अफ़्रीका से गरीबों आदि से मुकदमों की पैरवी करके अपने जहाज़ “नौशेरा” द्वारा भारत लौट रहे थे। कुछ समय के लिए मोरिशस के बन्दरगाह में कुछ समय के लिए रुके।
यह मज़दूरों के लिए भगवान का आशीर्वाद रहा। गांधी जी के आगमन का समाचार मोरिशस भर में बिजली की तरह फैल गया था। उस समय न डाक, न फ़ोन था या न अन्य कोई समाचार फैलाने का साधन। जनता में इतना साहस था कि उन्होंने इस समाचार को मोरिशस भर में फैला दिया। ताहेर बाग, पोर्ट लुई, तायाक और अन्य जगहों पर बहुत संख्या में लोग जमा हुए।
गांधी जी गुजराती में बोलते थे क्योंकि वे भोजपुरी नहीं जानते थे। बाद में उन्होंने हिन्दी का प्रयोग किया, जिसे मोरिशसवाले “भाषा” बोलते थे। हिन्दुओं की परिस्थिति को देखकर गांधी जी बहुत दुखी हुए। उन्होंने लोगों को भाषा के साथ-साथ राजनीति में भी भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया।
भारत लौटने पर गांधी जी ने डा. भारद्वाज को भेजा। फिर उनके प्रोत्साहन से मणिलाल डाक्टर मोरिशस आए थे। उस समय उस परिस्थिति में भारतीय वकीलों को गोरों से टक्कर लेना कठिन था।
भोजपुरी के माध्यम से, भोजपुरी और गुजराती आदि में पत्रिकाओं को निकालकर लोगों ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए।
आर्य समाज की स्थापना हुई। स्वामी दयानन्द की चर्चा होने लगी। लोगों के प्रोत्साहन से मोरिशस में बहुत भोजपुरी लेखक और लेखिकाएं हुए जैसे कि दिमलाला मोहित जी, श्रीमती सरीता बुद्धु इत्यादि।
आरम्भ में हम यह देख पाते हैं कि लोग छोटे-मोटे गीत गाते थे या कोई छोटी कविता। कभी मज़ाकि या भोजपुरी-संग्रह। भारत से कुछ सम्पर्क होने पर भोजपुरी कविताओं का कुछ अदान-प्रदान हुआ। और लोगों के प्रोत्साहन से लोगों ने भोजपुरी के लिए बहुत महान कार्य किया। सुचिता रामदीन की पुस्तक ’संस्कार मंजरी’ में सभी संस्कारों के गीत हैं। जैसे कि सोहर, पुत्र जन्मोत्सव, शिव-विवाह, दो मेला इत्यादि। आजकल एम.बी.सी. में भोजपुरी बहार तथा भोजपुरी टोप ५ जैसे कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं।
डा. कुबेर मिश्र मोरिशस में आए थे और उन्होंने भोजपुरी के बारे में विशेष खोज की थी। गांव-गांव जाकर उन्होंने भोजपुरी के गीतों का संग्रह किया। वे कई वृद्ध युवतियों से मिले और उनमें से एक का नाम था केवलपति मोहित। उनके पास भोजपुरी गीतों का खज़ाना था। श्री कुबेर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम “मोरिशस के भोजपुरी लोक गीतों का विवेचनात्मक अध्ययन” (१९८१) है।
श्री ब्रजेन्द्रकुमार भगत, जिनको लोग ’मधुकर’ नाम से अधिक जानते हैं, का आगमन हुआ। वे मोंताईं-लोंग धारा नगरी में रहते थे। उनके पास हर परिस्थिति के गीत पाए गए। ललना, सोहर, राजनीति, बिरसा, मज़ाकिया आदि-आदि जिनका संग्रह उनकी “काव्य-रचनावली” में विस्तार-पूर्वक पाते हैं”।
भ्रमर गीतों की परम्परा में ’उद्धव’ की मधुकर कहलाते हैं और कष्ण के संदेशों को गोपियों तक पहुंचाते हैं, उन्हीं के नाम से इन्हें ’मधुकर’ कहा गया है।
वास्तव में ये भोजपुरी के संदेश लाने में सफल हुए। उनके भोजपुरी के संग्रह में स्वदेश, १५ अगस्त तीस जनवरी, मटकोड़, कन्यादान, भंसुर के गारी, दहेज आदि-आदि बहुत गीतों का संग्रह है।
आपसे आग्रह है कि कभी-न-कभी मौका पाकर ब्रजेन्द्रकुमार भगत (राष्ट्रीय) कवि की पुस्तक “काव्य रचनावली” अवस्य पढ़ें।
मोरिशस में भोजपुरी के कुछ लेखकों व कवियों की पुस्तकें छपी हैं। कुछ लोगों का लेख व भोजपुरी रचनाएं भारतीय भोजपुरी पत्रिकाओं में छपी हैं।
मोरिशस के भोजपुरी लेखकों व लेखिकओं की रचनाओं से प्रभावित होकर मोरिशस में अन्तर्राष्ट्रीय भोजपुरी सम्मेलन का आयोजन हुआ था। बहुतों को अन्तर्राष्ट्रीय भोजपुरी आवार्ड मिला था।
भोजपुरी के पठन-पाठन के लिए महत्वपूर्ण कार्य किये गये हैं।
महात्मा गांधी संस्थान तथा अन्य संस्थाओं द्वारा भोजपुरी को आगे बढ़ाने के लिए काफ़ी प्रयत्न हो रहा है।
मोरिशस में बहुत से उभरते भोजपुरी लेखक व कवि नज़र आ रहे हैं।
गायक और गायिकाएं उभर रहे हैं। लेखकों द्वारा भोजपुरी का पाठ्य्क्रम तैयार हो गया है। माध्य्मिक कालेज, विशेषकर वसुदेव विष्णुदयाल कालेज में भोजपुरी की पढ़ाई दस सालों से हो रही है।
पुस्तक का नाम: ’भोजपुरी की हीरा मोती”
लेखक का नाम: श्री दिमलाला मोहित
कला मंत्रालय की ओर से भोजपुरी नाटक प्रतियोगिता आदि का आयोजन हो रहा है। कसैट की भड़मार हो रही है। प्रगति हो रही है।
विश्वविद्यालय में भोजपुरी को बी.ए. के स्तर पर भी मान्यता मिली है। विद्यार्थी भोजपुरी की खोज करने में लालायित हैं।
स्थानीय लेखक श्री दिमलाला मोहित द्वारा तैयार:
१. “भोजपुरी हिन्दी अंग्रेज़ी” शब्द कोश – भाग ७ कड़ी एक।
२. “भोजपुरी हिन्दी अंग्रेज़ी शब्द कोश – भाग ऽ कड़ी दो।
इनमें शब्द, बुझौवल, लोकगीत, व्याकरण आदि-आदि ने भोजपुरी में नई जान फूंक दी है।
अगले साल से प्राथमिक स्तर पर पहली कक्षा से भोजपुरी की पढ़ाई आरम्भ होगी।
मोरिशस में भोजपुरी संगठन भोजपुरी को नई दिशा देगी ऐसा अनुमान है। अभी भी मोरिशस में अनेक प्रकार के गीत गाये जा रहे हैं। इसका आन्दोलन चला रहे हैं। प्राथमिक स्कूल में इसकी पढ़ाई शुरू हो रही है। लेकिन सबसे बड़ा और सही आन्दोलन भोजपुरी के लिए होगा तो यह होगा।
“अपन में और औरू में भोजपुरी बोल।
नय तऽ बेक दिन बहुते पछतयबऽ॥“
“भोजपुरी न रहत तऽ हिन्दी नऽ आवत।
और हिन्दी ना आवत तऽ हिन्दुत्व न रहत॥“
आप सभी लोगों की सहायता, लगन से भोजपुरी का भविष्य उज्ज्वल रहेगा, ऐसी आशा है।
इंटरनेट, टेलीविज़न और वीडियो गेम बच्चों को आक्रमक बनाते हैं।
टेलीविज़न, इंटरनेट जैसी नई टकनीकों ने मनुष्य जीवन की जटिलता और निरसता को बहुत हद तक समाप्त कर दिया है। ज़रूरी सूचनाओं के प्रचार-प्रसार में टी.वी. और इंटरनेट अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह बहुत प्रभावी रूप से कर रहे हैं। देश-विदेश से संबंधित कोई जानकारी अगर हमें लेनी हो या दूर परदेश में हमारे दोस्त एवं रिश्तेदारों से अगर संपर्क रखना हो तो इंटरनेट के माध्यम से ये सभी ज़रूरतें चुटकियों में पूरी की जा सकती हैं।
इंटरनेट के द्वार प्रेषक अपना संदेश चित्रों के साथ भेज सकता है तथा प्रापक घर बैठे उसे प्राप्त कर सकता है। ई-मेल संचार के अन्य उपायों से ज़्यादा सस्ता और तीव्र है। इंटरनेट के माध्यम से प्रेषक और प्रापक एक दूसरे से बात करने के साथ-साथ एक दूसरे को देख भी सकते हैं। टेलीविज़न द्वारा हम समाचार सुनने के साथ-साथ दृश्य भी देख सकते हैं। टेलीविज़न पर आनेवाले विभिन्न कार्यक्रम मनोरंजन का ज़रिया होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी होते हैं जो लगभग सभी लोगों के सामान्य ज्ञान को बढ़ाने का कार्य करते हैं।
हर सिक्के की जैसे दो पहलुएँ होती हैं, वैसे ही हम कह सकते हैं कि जहां टी.वी और इंटरनेट जैसी सुविधाएँ मनुष्य के लिए ज्ञानवर्धक होती हैं, वहीं दूसरी ओर हर व्यक्ति के चारित्रिक पतन का कारण भी बनती हैं। लोगों के वास्तविक जीवन की झूठी उम्मीदें दे सकती हैं।
आजकल बच्चे इंटरनेट पर हिंसक विडियो गेम्स खेलते रहते हैं। यह भी हो सकता है कि अपने बच्चों की ज़िद्द के आगे घुटने टेकते हुए कइयों ने ऐसी विडियो गेम्स खुद लाकर भी दिये होंगे। एक सर्वेक्षण के मतानुसार यह प्रवृत्ति भले ही कुछ समय के लिए अपने बच्चे के चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। लेकिन पारिवारिक और सामाजिक तौर पर इसके दीर्घकालिक परिणाम बहुत हद तक घातक सिद्ध हो सकते हैं।
एक शोध के अनुसार जो उटाह ब्रह्मि यंग यूनिवर्सिटी द्वारा किया गया था बताता है कि टेलीविज़न पर दिखाई जाने वाली गाली-गलौज और हिंसक वीडियो गेम्स में होनेवाली मारधाड़ बच्चों के कोमल मन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
ऐसा भी माना जाता है कि वीडियो गेम्स की लोकप्रियता और ज़रूरत से ज़्यादा इनका प्रयोग बच्चों के भीतर आक्रमकता प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के साथ-साथ उनके नैतिक आचरण में भी गिरावट लाता है। कुछ लोग पूरी तरह से वीडियो गेम के आदी हो जाते हैं कि वे ठीक से अपने स्वास्थ्य का ध्यान ही नहीं रख पाते हैं। वे ठीक से खाते-पीते नहीं हैं और पर्याप्त व्यायाम भी नहीं करते हैं क्योंकि उनको समय ही नहीं मिलता है। वे अपने वीडियो गेम्स के साथ ही पूरे दिन-रात बिताते हैं। वे एक उचित शारीरिक कसरत का गठन भी नहीं कर पाते हैं।
वैज्ञानिकों के परीक्षण के आधार पर यह देखा गया है कि जो बच्चे गाली-गलौज और अभद्र भाषा के संपर्क में ज़्यादा रहते हैं वे अभद्र और गलत व्यवहार करने में भी आगे रहते हैं। भविष्य में यही अभद्र व्यवहार आक्रमक स्वभाव में परिवर्तित हो जाता है। वे बिना सोचे-समझे दूसरों के साथ मारपीट शुरू कर देते हैं।
हिंसक दृश्यों और व्यक्ति के स्वभाव का सीधा संबंध है। अकसर देखा गया है कि बच्चे जो भी अपने आस-पास के वातावरण में देखते और सीखते हैं वैसा ही व्यवहार करनी की कोशिश ज़रूर करते हैं। विशेषकर युवाओं और किशोरों के विषय में तो हम सभी यह जानते हैं कि टी.वी. और इंटरनेट की दुनिया से बहुत जल्दी वे ही प्रभावित हो जाते हैं। वे जल्द से जल्द अपने फ़िल्मी हीरो के जैसे बनने की कोशिश करते हैं। वे उनकी नकल उतारने लगते हैं जैसे उनकी तरह बातें करना, कपड़े पहनना और ‘फ़ूल’ दिखना उन्हें बहुत पसंद आता है और इसी के चक्कर में वे बिना सोचे-समझे कुछ भी करने को उतारू रहते हैं। वे फ़िल्मी दुनिया और यथार्थ जीवन के बीच के अंतर को भी भूल जाते हैं। असल में फिल्म बनाने वाले लोगों का एक-मात्र उद्देश्य अधिकाधिक धन कमाना होता है। लेकिन वे यह नहीं समझते हैं कि इससे उन्हें कोई लेनी-देना नहीं होता, कि फ़िल्म में दिखाए जाने वाले दृश्य और संवाद देखने लायक हैं या नहीं। बच्चे उस आभासी किरदार की जीवनशैली को ही आदर्श मानने लगते हैं। अगर उनका हीरो अभद्र भाषा का प्रयोग करता है तो बच्चे उसे ‘मार्डन स्टाइल’ समझते हैं और अपने दोस्तों के साथ उस भाषा का प्रयोग करने लगते हैं। उनका यही स्वभाव आगे चलकर उनके भीतर उग्रता का प्रचार करता है।
इंटरनेट जैसी सुविधाओं के आने से बच्चे अपने मित्रों और परिवारों के साथ बहुर कम समय बिताते हैं। परिवारों के साथ बैठकर गप-शप करने के बजाय वे आजकल एक कमरे में बंद अपनी दुनिया को टी.वी. और इंटरनेट तक ही सीमित किए हुए हैं।
पहले ज़माने में जो भी खेल प्रमुखता से खेले जाते थे आज वह ‘बोरिंग’ और ‘आऊटडेटड’ माने जाते हैं। आजकल बच्चे को वीडियो गेम ज़्यादा भाता है। इसके प्रभावों को बिना जाने-समझे वे इन्हें खेलते हैं। हद तो तब हो जाती है जब अभिभावक उनकी इस पसन्द को अपनी स्वीकृति दे देते हैं। बच्चे उस गेम में होनेवाले लड़ाई-झगड़े को रोमांचक समझते हैं और उस रोमांच को अपने जीवन में लाने की कोशिश करते हैं। बच्चे भूल जाते हैं कि गेम की समाप्ति में हीरो सब ठीक कर देता है लेकिन अगर वे ही गलती वास्तविक जीवन में कर देते हैं तो सुधारा जाना लगभग असंभव हो जाता है।
ऐसी हालातों में अभिभावकों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे अपने बच्चों को सही मार्गदर्शन दें। उन लोगों को बच्चों को ऐसे खेलों और कार्यक्रमों से दूर रखने के लिए बचावें जो उनके मस्तिष्क को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। माता-पिता को भी एक यह सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी होती है कि वे अपने बच्चों को एक उज्ज्वल भविष्य दें।
नि:संदेह समाज में अपनी और परिवार की पहचान निर्धारित करना भी उनकी एक महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है। अभिभावकों को यह चाहिए कि वे अपने कर्त्तव्यों के मोल को समझें और बच्चों के भविष्य का एक मज़बूत आधार प्रधान करें।
pagal hai kya
समाज के प्रति युवकों का कर्त्तव्य
समाज और व्यक्ति क सम्बन्ध सापेक्ष कहा जा सकता है क्योंकि, एक के अभाव में दूसरे की उपस्थिति सम्भव नहीं । अत: यह स्वाभाविक है कि प्रत्येक व्यक्ति एक सभ्य एवं विकासशील समाज के निर्माण में यथशक्ति संलग्न रहे । मूलत: किसी समाज की उन्नति में बच्चे, युवक एवं वृद्ध, इन तीनों वर्गों का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है । परन्तु, बच्चों व वृद्ध कि तुलना में युवकों को समाज का मेरुदण्ड माना जा सकता है । इस धारणा के पीछे मुख्य कारण यह है कि युवा वर्ग में स्फूति एवं उत्साह ओत-प्रोत है । इस दृष्टि से उपरोक्त इन दो वर्गों की अपेक्षा समाज की प्रगति क नेतृत्व करना युवकों का उत्तरदायित्व है तथा कर्तव्य भी । युवक परिवार का सर्वाधिक सजीव एवं सक्रीय सदस्य है । परिवार के वृद्धों के उत्तराधिकरी के नाते जल्द-ही युवक परिवार का भार अपने ऊपर लेते हैं । अब जबकि विषय समाज की ओर केन्द्रित है तो यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि स्वस्थ परिवारों से ही समाज अनेक क्षेत्रों में सम्पन्न हो पात है । पारिवारिक दृष्टिकोण से तो युवकों के उत्तरदायित्व अनेक हैं, किन्तु धीरे-धीरे इस उत्तरदायित्व को व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर होना चाहिए । कहने का तात्पर्य है कि युवकों को पारिवारिक उन्नति हेतु कार्यों में संलग्न होने के साथ-साथ यह कदाचित नहीं भूलना चाहिए कि समाज के प्रति भी उसके कर्त्त्व्य हैं ।
सामाजिक परिप्रेक्ष्य में युवकों के कर्त्तव्यों पर ध्यान देते समय सर्वप्रथम आधुनिक समाज की ज्वलन्त समस्या को लेकर अग्रसर होते हैं । वह समस्या है नैतिकता का पतन । सुनने में साधारण प्रतीत होनेवाले ये शब्द अत्यन्त गम्भीर हैं । नैतिकता की अनुपस्थिति में समाज का खोखलापन उभरकर सामने आएगा । इससे समाज ओर जंगल में अन्तर नहीं रहेगा । वर्तमान युग में जिन नैतिक मूल्यों का लोप हो रहा है उनके पुनरोथान युवकों का प्रमुख कर्तव्य माना जा सकता है । आज वृद्ध के समक्ष तथा अभिभावकों के प्रति आदर भाव से प्रस्तुत होने में जिस झिझक का आभास उभरती पीढ़ी में हो रहा है, उसी को जड़-समेत उखड़ फेंकने का काम युवकों को करना चाहिए ।
आधुनिक समाज से शिष्टाचार के विलोपन की शंका रहती है । खतरे की घण्टी तो कब की बज चुकी किन्तु, जानना यह है कि क्या इस समस्या से कितने लोग अवगत हैं और वे इसके समाधान हेतु कितने प्रयासशील हैं । दुर्भाग्य तो यह है कि कई लोग आज भी अपने कानों में तेल डालकर सोए हुए हैं । यदि इसका समाधान ढूँढा नहीं गया तो समाज पूर्णतया पतनोन्मुख हो सकता है । युवक पुनः शिष्टाचार को समाज का एक अंग बनाकर पूर्व में हुई क्षति पर मरहम लगा सकते हैं । इस कार्य में युवकों को सफ़लता तभी प्राप्त हो सकती है जब स्वयं उनका व्यक्तित्व सबलता व दृढ़ता से परिपूर्ण होगा । इनके अभाव में ना ही युवक स्वयं को शिष्ट व्यावहारों से सम्पन्न कर पाएँगे ना ही समाज के प्रति अपने इस कर्त्तव्य की पूर्ति में सफ़ल होंगे ।
युवा वर्ग शैक्षिक दृष्टि से सम्पन्न होकर नए विचारों, नई भावनाओं तथा नए लक्ष्यों को अपने आमने-सामने पाते हैं । समग्रतः यह नयापन उनको एक नई क्रान्ति की ओर ले जाता है । किन्तु, यदि युवक समाज में परिवर्तन लाने के जोश में संस्कृति के विलोपन का कारण बन जाए तो स्थिति चिन्ताजनक हो जाती है । यह मानना पड़ता है कि नई पीढ़ी सर्वथा नवीनता की ओर आकृष्ट रही है । अतः यह भी स्वाभाविक है कि वह संस्कृति को कुछ परे रखकर नवीन वेश-भूषा तथा विचारधाराओं को अपने जीवन में उतारें । लेकिन यदि गम्भीरता पूर्वक सोचा जाए तो संस्कृति के अलावा उन युवकों की निधि है भी क्या? प्रकृति तो चिर परिवर्तनशील है ही और मनुष्य भी सदा-सर्वदा के लिए समाज में उपस्थित नहीं रहेगा । अतः जो अमर रह जाएगा वह मात्र मनुष्य की संस्कृति है जिसे वह अनमोल निधि की भाँति उभरती पीढ़ी को सोंपकर चला जाता है । अतएव संस्कृति की रक्षा करके आनेवाली पीढ़ी हेतु यह धरोहर सुरक्षित रखना युवकों का कर्त्तव्य है ।
अब बात यह उठती है कि संस्कृति को युवक जीवित रखें तो कैसे ? इसक उत्तर निम्न वाक्य में प्राप्त हो सकता है जिसकी दुहाई प्रायः सभी संस्कृति प्रेमी देता है । यह कथन एक अकाट्य तथ्य है । इतिहास के पन्नों को पलटने पर इसकी पुष्टि सहज ही हो जाती है । मिस्र और युनानी संस्कृति के पतन का कारण उनकी भाषा का लोप ही तो है ।
“भाषा गयी तो संस्कृति भी गयी ।”
इस विचार द्वारा संस्कृति को सुरक्षित रखने का समाधान मिल जाता है । अतएव युवक भाषा को जीवित रखकर समाज में संस्कृति को चिरायु प्रदान करने में सफ़ल होंगे ।
इसी भाँति समाज की अन्य समस्याओं की जड़ तक पहँचना युवकों के कर्त्तव्यों में ही सम्मिलित है । समाज को रूढ़िवादी विचाधाराओं से मुक्त करना भी उनके कर्त्तव्यों का अंग है । अन्धविश्वास, जात-पाँत की समस्याएँ, कुरीतियाँ आदि रूढ़िवादी परम्पराओं से ग्रस्त समाज हेतु समाधान ढूँढ्ने का उत्तदायित्व युवकों पर ही आ जाता है । युवक वर्ग को धीरे-धीरे इन मान्यताओं में लचीलापन लाकर समाज के धरातल धीरे-धीरे इनका पूर्ण लोप कर देना चाहिये । इस प्रकार इन समस्याओं से उत्पीड़ित समाज इनसे मुक्त होने के पश्चत उन्नति की ओर अग्रसर होने में समर्थ होगा । इसमं कोई सन्देह नहीं ।
पीढ़ी अन्तराल की समस्या भी समाज की प्रगति का बाधक सिद्ध होता है । आज सन्युक्त परिवार के विघटन का कारण यही गलत धारणा है । अतः यहाँ युवकों का कर्त्तव्य बन जाता है कि वे वृद्धों के बीच इस शून्य को भर दें । जितनी भी देर वे लगाएँगे उतने ही दूरस्थ वे अपने अनुभवी वृद्धों को पाएँगे । विश्वभर में बढ़ते वृद्धश्रम इसी दूरी के साक्षी हैं । हमारा ध्येय इस दूरी को पाटने का होना चाहिए न कि दोनों पीढ़ियों के बीच तनावपूर्ण तथा खटास से भरी भावनाओं की खाई बनाना । ऐसा न करने पर युवक स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार देते हैं क्योंकि वृद्धों के मूल्यवान विचार उन तक नहीं पहुँच पाते । ताली दो हाथों से ही बजती है । अतः यदि समाज के दो हाथ, युवक तथा वृद्ध अलग-अलग हों तो समाज में प्रगति की दुर्लभ है ।
इस विचार के पश्चत युवकों का एक और मूल कर्त्तव्य यह रह जाता है कि वे सर्वप्रथम स्वयं को मादक-द्रव्यों से बचाये रखें क्योंकि इसके तत्पश्चत ही समाज के उत्थान हेतु उसे खायी में गिरने से बचाएँ । वर्तमान युग में धुम्रपान, अपचार, नशाखोरी आदि क्षति पहुँचानेवाले कुकर्म उभरते जा रहे है जो समाज को घेरे जा रहे है और अन्धकारमयी छाया के घिराव में पतन की ओर धकेले जा रहे है । अतः इनके विरुद्ध कदम उठाना अत्यन्त आवश्यक है । इस कार्य को युवकों के हाथ सोंपा जाना चाहिए किन्तु यह अविस्मर्णिय है कि उसी दलदल के मध्य रहकर इस समस्या का हल नहीं ढूँढा जा सकता । अतः यह विचारनीय है कि पक्ष-विचलित युवकों को भावी नेता के रूप में देखा नहीं जा सकता । इसी करणार्थ यह युवकों का ही उत्तरदायित्व है कि वे समाज के इस समस्या का समाधान ढूँढें । इसी कार्य की पूर्ति हेतु आज अनेक युवक संघों का उभरना स्वाभाविक है जो समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों से अभिज्ञ होकर समाज-सुधार में कार्यरत रहते हैं । इन संघों के अलावा उन्हें अनेक प्रकार से जुटकर सार्वजनिक सेवा में तथा समाज की उन्नति में अपना योगदान दें ।
अतः यह कहना उचित होगा कि जिस सर्वोत्तम जीव अर्थात, मनुष्य की समष्टि को समाज कहते हैं, उसकी सुरक्षा में युवकों को भी अपने उत्तम गुणों के सहयोग द्वारा निज कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए । अपने कर्त्तव्यों के प्रति सचेत होकर ही वे स्वस्थ समाज का निर्माण करने में समर्थ होंगे । इसी भाँति समाज उन्नति के पथ पर अपना ध्वजारोहण कर पाएँगे । अतएव एक विकासशील एवं उन्नत समाज द्वारा ही युवक एक स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में अपना उचित सहयोग दे सकेंगे । अन्ततोगत्वा प्रत्येक युवक को एक महान नेता, जॉन केनेडी, के इस विचार को अपने मन-मस्ष्टिक में उतार लेना चाहिए –
“तुम यह मत सोचो कि देश ने तुम्हारे लिए क्या किया बल्कि, तुम यह सोचो कि तुमने देश के लिए क्या किया ।”
assignment-संवाद
“वोइस अव इंदिया शो” पर दो सहेलियों का संवाद प्रस्तूत है-
हेमा- “हाइ सुमन !”
सुमन – “ अरे हेमा – हाई! क्या हुआ? सुरत से कुछ ठकी सी दिखाई दे रही हो।“
हेमा – “हाँ सुमन । तुम जानती ही हो कि छुट्टियाँ बिताने के लिए बच्चों ने रोड्रिग्स जाने के लिए ज़िद पकड़े थे। हमें वहाँ जाना ही पड़ा। एक सप्ताह के बाद आज सवेरे ही लौटे हैं। बस यात्रा से ठक गई हूँ। तुम अपना सुनाओ। सब ठीक है?“
सुमन – “हाँ ईश्वर की कृपा से सब ठीक है। अरे हाँ! कैसी थी यात्रा?”
हेमा –“पूछो मत्। सोचा था वहाँ जाकर थोड़ा आराम करूँगी। पर ये बच्चे चैन से जीने दे तब न-बस यहाँ जाओ वहाँ जाओ-शाँपिंग करो। एक तो रोड्रिग्स जाने के लिए इतने खरचे अब ऊपर से शाँपिंग लिस्ट्। वहाँ की वस्तुएँ यहाँ मोरिशस की वस्तुओं से कीमती हैं। बच्चे कभी-कभी अपनी पसंद की चीज़ें खरीदने के लिए मुझे हाटल में छोड़ देते थे।“
सुमन- “हाटल में रहकर आराम नहीं किया?”
हेमा – “ हाँ सोची तो थी कि आराम से बैठकर टी-वी पर अपने मन-पसंद कार्यक्रम देखूँगी। लेकिन वहाँ तो केवल तीन चैनल ही हैं।‘डिजिटल चैनल’ तो है ही नहीं। टी.वी पर न कोई ढंग की फिल्म और न कोई सिरियल्। अब तुम ही सोचो कैसे मेरा दिन बीता होगा। सोचती ही रही कि “वोइस अव इंडिया” में क्या हुआ होगा। कौन प्रोग्राम से बाहर हो गया होगा।“
सुमन- “परेशान मत हो हेमा। तुम्हारा चहेता गायक ‘हर्षित’ अभी भी प्रोग्राम में है। जनता उसे पसंद कर रही है। कल ही उसे ‘स्तार अव ज़ि दे’ घोषित किया गया।“
हेम-“क्या कह रही हो सुमन? ‘हर्षित’ अभी भी इन है? क्या अच्छी खबर सुनाई तुमने। मेरा थकान कुछ दूर हो गया। जानती हो भग्वान से मेरी यहीं विनती थी कि हर्षित ही इस प्रतियोगिता को जीतें। और बताओ प्रोग्राम में से कौन चला गया?”
सुमन – “अब केवल तीन रह गये हैं- ‘हर्षित,आभास और इषमीत। आज इनमें से भी कोई एक आउट हो जाएगा। मुझे तो अच्छा नहीं लगता। जब कोई बाहर होता है तब उदासी छा जाती है। तीनों ही अच्छा गा रहे हैं। पता नहीं ये इंडिया वाले किसको ज़्यादा वोट देंगे।“
हेमा – “ हाँ सभी अच्छा गा रहे हैं। परंतु ‘वोइसअव इंसिया’ की विजेता ‘हर्षित’ ही बनेगा। देख लेना।“
सुमन-“इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकती हो? ‘आभास’ भी अच्छा गा रहा है। सत्रह वर्ष का यह लड़का प्रसिद्ध गायकों की तरह गा रहा है। ‘इष्मीत’ भी पंजाब दा पुतर है। पूरा पंजाब उसके साथ है। यह तो भारतियों की वोट पर निर्भर है।“
हेमा-“ तुम्हारी बात भी सही है। आज शाम को देखेंगे कि क्या होगा। खैर ये सब बातें छोड़ो और बताओ कहाँ जा रही थी।“
सुमन-“अरे हाँ! बातों-बातों में भूल गई। दूध समाप्त हो गया है। बस यही लेने जा रही थी। साथ चलोगी या कहीं और जाना है?”
हेमा-“मुझे तो आराम कहाँ। बच्चों ने ‘बिर्यानी’ की माँग की है। मुझे पकाना पड़ेगा नहीं तो बच्चे भूख हरताल करेंगे। इसीलिए ‘बिर्यानी’ बनाने का सामान लने जा रही थी। चलो साथ चलते हैं।“
अभ्यास कार्य (२):- रिपोर्ट
डि. वेल.सरकारी पाठशाला में संगीत दिवस
यह आश्चर्य की बात है कि संगीत दिवस मनाने के लिए सरकार द्वारा केवल दो घण्टे की अनुमति पाने के पश्चात भी डि. वेल सरकारी पाठशाला में २३ जून २०११ को बड़ी धुमधाम से संगीत दिवस मनाया गया। शैक्षणिक वर्ष के मध्य में यह एक्स्त्रा क्युरिक्युलर अक्तिविति आनद दायक एवं शिथिल सिद्ध हुआ।
गुरुवार २३ जून २०११ को सरकार द्वारा निर्धारित समय पर ही उपर्युक्त सरकारी पाठशाला में संगीत दिवस का आरम्भ हुआ। एक बजे कार्यक्रम का श्री गणेश पाठशाला के मुख्य अध्यापक श्रीमान रामतोहल जी के भाषण से हुआ। भाषण में उन्होंने संगीत का महत्त्व समझाते हुए कहा कि “संगीत न केवल मन को शांति प्रदान करता है अपितु संगीत के माध्यम अन्य धर्मों की भाषा, उनके अस्तित्त्व का सम्मान करना भी सीखते हैं।“ इस कथन पर तालियों की गुँज सुनाई दी। फिर अवसर का लाभ उठाते हुए विगत वर्ष की “आलिआँस फ्रँसेज़” परीक्षा में उत्तिर्ण पाँचवी कक्षा के छात्रों को भी पुरस्कृत किया गया। यह अन्य छात्रों के लिए प्रेर्णादायक सिद्ध हुआ।
स्कुल के अध्यापकों द्वारा बड़े जोश से कार्यक्रमों को प्रस्तूत किया गया। जैसे-जैसे कार्यक्रम बढ़ता गया वैसे-वैसे बच्चों की उत्साह भी बढ़ती गई। वे अपने सहपाठियों की महनत को सराह रहे थे। कार्यक्रम के मध्य में पि.टि.ए (अभिभावक शिक्षक संघ) के सहयोग से विद्यार्थियों को जूस भी दिया गया। फिर बड़ी कौतुहल, मस्ती एवं शोर के साथ कार्यक्रम बढ़ता गया। अंत में मुख्य अध्यापक एवं पि.टि.ए के प्रधान ने इस संगीत दिवस को सफल बनाने के लिए स्कूल के अध्यापकों और छात्रों को धन्यवाद किया।
सादगी का महत्त्व
सादगी का अर्थ – किसी भी तरह के दिखावे या तड़क-भड़क का न होना । जहाँ सादगी होती है, वहाँ फैशन का अतिरेक नहीं होता ।
संसार में कुछ लोग ठाट-बाटवाला जीवन ही पसंद करते हैं । वे कीमती कपड़े पहनते हैं, महँगा खाना खाते हैं, महँगी सवारी में यात्रा करते हैं । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके पास न ता बेंक-बेंलेस है, न महँगी सवारी, न महँगा खाना, फिर भी वे सादा जीवन न अपनाकर ठाट-बाट का जीवन बिताना पसंद करते हैं । लेकिन सादगी को महत्त्व देने वाला व्यक्ति ऐस नहीं करता । धनी या समर्थ होने पर भी वह सादगीभरा जीवन पसंद करता है । वह सादे कपड़े पहनता है और सादा भोजन करता है । दिखावे की चीज़ों में उसकी रुचि बिल्कुल नहीं होती । ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं । आजकल लोगों के पास कुछ ज़्यादा पैसे क्या आ जाते हैं, वे तो हवा में उड़ने लगते हैं । सादगी से जीवन बिताना तो कोई चाहता ही नहीं । सभी लोग ठाट-बाट से जीना चाहते हैं ।
सादगी को समाज में एक अच्छा गुण माना जाता है । सादगी को महत्त्व देनेवाला व्यक्ति धन का दुरुपयोग कभी नहीं करता । उसकी ज़रूरतें बहुत कम होती है । इसलिए कम आमदनी में भी वह आराम से रह सकता है । उसे प्रायः किसी से कर्ज़ लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती । सादगी से रहनेवाला व्यक्ति प्रायः व्यसनों का शिकार नहीं होता । इसलिए व्यसनों से होनेवाली कष्टों से भी वह बच जाता है । सादगी से जीवन बिताने वाला व्यक्ति हमेशा प्रगति की ओर बढ़ता है । वह अगर कभी लालच नहीं करेगा तो कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा । दूसरों के प्रति ईर्ष्या, जलन जैसी भावनाओं को अगर रखेंगे तो प्रगति की ओर न बढ़कर तबाही की ओर अपना कदम बढ़ाएँगे । इसीलिए कहते हैं कि सादगी से अपना जीवन बिताने से जीवन आराम से कट सकता है ।
सादगी से जीनेवाला व्यक्ति अपने परिवार, समाज और देश के लिए आदर्श होता है । वह अपने परिवार को अच्छे संस्कार देता है । आज की इस दुनिया में संस्कार का बहुत महत्त्व होना चाहिए क्योंकि आजकल बच्चे अपने माता-पिता और बड़ों का आदर करना भूल गये हैं । वे बुरी संगत में पड़कर अपने आदर-भाव भूलते जा रहे हैं । उनके लिए सादगी जैसा शब्द तो बेकार की बात है । वे मौज-मस्ती में विश्वास रखते हैं । ऐसे लोग ही धन का सदुपयोग कर सकते हैं । वे मौज-मस्ती में पैसा बरबाद नहीं करते । परंतु अपने धन को वे समाज की भलाई के लिए खर्च करते हैं । वे मन्दिर, अस्पताल और धर्मशालाएँ बनवाते हैं । उनकी सहायता से स्कूल जैसे कल्याणकारी कार्य चलते हैं ।
प्रायः हर महापुरुषों के जीवन में सादगी की झलक मिलती है । वे ज़्यादतर समाज-सेवा में अपना समय बिताते हैं । उनके लिए ’सादा जीवन, उच्च विचार’ ही सबसे महत्त्वपूर्ण है ।
अभ्यास कार्य (३) :- निबंध
जैनरेशन गैप
“जैनरेशन गैप” को सुनकर ही हम समझ लेते हैं कि इन शब्दोँ मेँ कहीँ न कहीँ कोई टकड़ार है। वैसे तो “जैनरेशन गैप” दो शब्दोँ से बना है- पहला “ जैनरेशन” जिसे शुद्ध हिंदी मेँ “प्रजनन या पीढ़ी” कहते हैं और दूसरा “गैप” जिसका तात्पर्य “दरार” है। इससे स्पष्ट होता है कि “जैनरेशन गैप” उस दरार को कह सकते हैं जो एक पीढ़ी और दूसरी पीढ़ी के बीच मेँ होता है। यह दरार विशेषकर पुराने तथा नवीन प्रजनन के मध्य होता है। पुराने तथा नवीन पीढ़ी मेँ कितने समय का अंतर है यह कोई ठीक अनुमान नहीँ लगा सकता। जैसे-जैसे व्क्त बीतता है वैसे-वैसे नए विकास एवं परिवर्तनोँ के कारण विचारोँ मेँ भी परिवर्तन आता है। जीवन के प्रति अनेक दृष्टिकोण उत्पन्न होते हैं। इन विभिन्न विचारों में से क्या सही है और क्या गलत यह कोई नहीं बता सकता। सभी एक प्रकार सही भी हो सकते हैं और कभी-कभी गलत भी। परंतु जब इन विभिन्न विचारों का आमना-सामना होता है तब लोहे के समान टकराकर आग बरसाते हैं। इसी ज्वलंत बरसात को आधारशीला बनाकर “जैनरेशन गैप” टीका हुआ है और इसके कारण बढ़ते जा रहे हैं।
आधुनिक काल में आत्मनिर्भरता एवं स्वांतःसुखाय प्रचलित हुआ और अभी-भी प्रसिद्ध है। दूसरों का महत्त्व सभी के लिए कम होता गया। सभी अपने लाभ के लिए सपने देखने लगे। वैसे सपने देखना बूरी बात तो नहीं परंतु कभी-कभी कुछ सपनों को साकार करने की कोशिश से जीवन की काया ही पलट जाती है। आत्मनिर्भरता एवं स्वांतःसुखाय के कारण आज परिवारों में विघटन आया है। शादी के पश्चात् बेटा किसी कारणवश अपने अभिभावकों से अलग अपनी दुनिया बसाता है। नवजवानों को अपने जीवन में अधिक स्वतंत्रता चाहिए। स्वतंत्र रहना कोई अपराध नहीं है परंतु अपने वृद्धों को बेसहारा छोड़ना कुछ हद तक अपराध माना जा सकता है। वृद्धों को जीवन में सहारा चाहिए। युवकों की सोच हमेशा व्यावहारिक होती है परंतु वृद्ध जन अधिक भावुक होते हैं। इस अंतर के कारण दोनों पीढ़ियों में बहस होता है और इससे पीछा छुड़ाने के लिए युवक या तो अपना अलग संसार बसाता है या अपने माता-पिता को ‘होम’ जैसी संस्थाओं में भेज देते हैं।
इस औद्योगिक युग में जहाँ एकल परिवार प्रसिद्ध हो रहा है वहाँ आर्थिक समस्या भी जोड़ पकड़ रही है। इसी समस्या का प्रध्वंस करने के लिए, अपने परिवार को हर प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करने के लिए लगभग सभी घरों की महिलाएँ काम कर रही हैं। यह खुशी की बात है कि महिलाएँ पुरुष से कंधा मिलाकर न केवल अपने गृहस्थ के लिए वरन देश की उन्नति के लिए भी काम कर रही हैं। परंतु इनके काम करने से बच्चे पीछे छूट जाते हैं। उनपर नियंत्रन पाना कठिन हो जाता है। इस कारण वे अपने अभिभावकों से विचार-विनिमय नहीं कर पाते हैं। वे केवल अपने मोबाइल या कम्प्युटर तक अपना ध्यान केंद्रित रखते हैं। वे माता-पिता के सामने अपने विचार प्रकट करने से या तो डरते हैं या हिचकिचाते हैं। इसीलिए मित्रों के सहारे अपने अकेलेपन को दूर करते हैं। कभी-कभी बच्चे कुसंगत में भी पड़ जाते हैं। कुछ बच्चे नशीले पदार्थ, वैश्या वृत्ति आदि का शिकार हो जाते हैं। फिर उनको सही मार्ग दिखाना कठिन हो जाता है। धीरे-धीरे बच्चे एवं अभिभावकों के मध्य की दूरी बढ़ती जाती है। यह दूरी “जैनरेशन गैप” को बढ़ावा देती है।
इसके उपरांत यदि बच्चे अपने विचार बड़ों के सामने प्रकट कर भी ले तो अनेक वाद-विवाद के पश्चात ही फैसला सुनाया जाता है या फैसला ठोंपा जाता है। हाँ, कभी-कभी बड़े , छोटों पर अपना अधिकार जमाना पसंद करते हैं। वे अपने अनुभवों का उदाहरण देते ही रहते हैं। कुछ अभिभावक यह चाहते हैं कि जीवन को अच्छी तरह समझ पाने के लिए बच्चों को कुछ कठिनाइयों का सामना करना ही चाहिए। वैसे यह सही बात भी तो है। इस प्रकार बच्चे अपने पैरों पर खड़े भी हो सकते हैं। आजीवन में वे अधिकतर समस्याओं का धैर्यता पूर्वक सामना भी कर सकते हैं। परंतु आज के युवक कुछ ज्यादा जानने के भ्रम में हैं। इस संदर्भ में प्लेटो की एक कहावत है-“young people of today think of nothing but themselves. They have no reverence for parents or old age. They are impatient of all restraint. They talk as if they alone know everything.” उनके लिए बड़ों के अनुभव कोई महत्त्व नहीं रखते हैं। वे दूसरों की पर्वाह नहीं करते हैं। न आव न ताव देखकर जो मन में आता है वहीं करते हैं। वे परिणाम के बारे में नहीं सोचते हैं। जहाँ माता-पिता बच्चों के हित के लिए अपना अधिकार जमाते हैं वहीं बच्चे भी उनके विरुद्ध जाने के लिए “चिर्रन राइत्स” या “चाइल प्रोतेक्शन युनित” जैसी संस्थाओं का सहारा लेते हैं और “जैनरेशन गैप” को बढ़ावा देते हैं।
इसके अतिरिक्त संस्कृति, वेशभूषा, खान-पान, संगीत, विवाह … आदि ऐसे विषयों पर भी दोनों पीढ़ियों में वाद-विवाद होता ही रहता है। माता-पिता को हमेशा यहीं डर होता है कि उनके बच्चे कहीं भटक न जाएँ। भटक कर कोई बुरा काम ना कर बैठें। इसीलिए कभी-कभी वे अपने बच्चों से बड़ी सख्ती से पेश आते हैं। परंतु इसी सख्त नियंत्रण के कारण बच्चे विद्रोह कर बैठते हैं और बाहरी दुनिया के शानोशौकट में फंस जाते हैं। इसी कारण संस्कृति, जात-पात ये सब उनके लिए प्रश्न बन जाता है। जहाँ बड़े संस्कृति,भगवान, संस्कार आदि का नाम लेते हैं वहाँ बच्चे टेकनोलोजी, विज्ञान, पार्टीज़, डिस्को, मौज-मस्ती आदि की बात करते हैं। वे क्षणिक जीवन एवं आत्मसंतुष्टि को मानते हैं। पाश्चात्य संस्कृति उनको वशिभूत कर रही है। जिस कपड़े, खाद्य या पेय, वस्तु, यहाँ तक कि जिस साथी या घर से वे असंतुष्ट हैं उन्हें त्यागने से वे हिचकिचाते नहीं। इन सब में युवकों का कोई दोष नहीं है। जिस तेज़ी से समाज में, संस्कृति में, सोच में परिवर्तन आ रहा है उसी तेज़ी से ये परिवर्तन युवकों पर असर कर रहे हैं और येही परिवर्तन “जैनरेशन गैप” को बढ़ावा भी दे रहे हैं।
व्यापार, संस्कृति, खानपान, आदि क्षेत्रों में परिवर्तन हो रहा है। इन परिवर्तनों ने सिनेमा को भी नहीं छोड़ा। माना कि दर्शकों के मनोरंजन एवं आकर्शन के लिए हर प्रकार की नई टेक्नोलोजी का प्रयोग किया जा रहा है और करना भी चाहिए। परंतु आजकल फिल्मों में नैतिक मूल्य कम हो गए हैं। निर्माता एवं निर्देशक वही फिल्म बनाते हैं जो दर्शक पसंद करते हैं। आज इस तनावपूर्ण जीवन में कामडी फिल्में अधिक चलती है। इसीलिए लोगों को हसाने के लिए निर्देशक विभिन्न स्थिति में हास्यास्पद शब्दों या विचारों का प्रयोग करते हैं। लेकिन कभी-कभी वे महान व्यक्तियों, उनके मूल्य, उनके आदर्श के उदाहरण का प्रयोग अन्य रूप में करते हैं जो नवयुवकों पर एक बुरा प्रभाव डालता है। पहले जहाँ आदर्श व्यक्ति बनने के लिए हमारे दादा गांधी जी के आदर्शों एवं मूल्यों के उदाहरण देते थे परंतु अब नौजवानों से गांधी जी के बारे में पूछें तो उनका उत्तर कुछ इस प्रकार होता है-“ गांधी जी हम जैसे नवजवानों को अपने गलफ्रेंड से मिलने में सहायता करते हैं।“ यह विचार उन्हें “लगे रहो मुन्ना बाई” फिल्म देखने के पश्चात मिला है।उनकी सोच गलत भी नहीं है परंतु इस फिल्म में वे निर्देशक के सत्य पर आधारित संदेश को महत्त्व नहीं देते हैं। फिल्म में जिस प्रकार निर्देशक ने अभीनेता एवं अभीनेत्री के माध्यम सत्य के महत्त्व पर बल दिया है इसको समझ पाना युवकों के लिए कठिन नहीं है। फिरभी वे केवल मनोरंजन के लिए ही फिल्म देखना पसंद करते हैं। बड़े लोग चाहते हैं कि बच्चे फिल्म देखें लेकिन फिल्म से कुछ अच्छी बात सीखने की आशा भी करते हैं। इसीलिए वे अपने ज़माने के फिल्मों का उदहरण देते ही रहते हैं जो युवकों को व्यर्थ लगता है और दोनों आपस में बहस करते हैं।
इसके अलावा गानों के बोल भी पीढ़ी में अंतराल का संकेट देते हैं। आज से कुछ पंद्रह वर्ष पहले प्रसिद्ध अभीनेता “ अमीर खान” पर दर्शाये गीत के बोल “पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा। बेटा हमारा ऐसा काम करेगा…” लोगों पर प्रभावित हो रहा था। परंतु आज उनके भतीजे अभीनेता “इमरान खान” पर दर्शाया गीत “ डैसी मुझसे बोला तू गलती है मेरी…..” काफ़ी प्रसिद्ध है। नई पीढ़ी इसे पसंद करते हैं परंतु वृद्ध इसको सुनना भी नहीं चाहते। ये दोनों गीत ही “जैनरेशन गैप” का उदाहरण देते हैं। इन गीतों से यह पता चलता है कि ज़माने में कैसा बदलाव आ गया है। अब बच्चे अपने समय का ही तो उदाहरण लेंगे। इससे उनके और उनके बड़ों के बीच टकड़ार आता है।उनके विचारों में विविधता आ जाती है। इसी प्रकार जब तक विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन होते रहेंगे तब तक “जैनरेशन गैप” का अस्तित्व नहीं मिटेगा।
“जैनरेशन गैप” हमेशा हमारे जीवन में रहता आया है और आगे भविष्य में भी अवश्य रहेगा। यह हमारे जीवन कि एक ऐसी सच्चाई है जिससे हम मूँह नहीं मोड़ सकते हैं। हमारे खुद के विचार दिनबदिन बदलते रहते हैं। अभी हम जिस प्रकार सोचते हैं, विचारते हैं आगे समयानुसार ये विचार बदलेंगे। हमारे दृष्टिकोण अलग होंगे। इसीलिए हमारा हित इसी में है कि संचार, विचार-विनिमय द्वारा हम अभी से “जैनरेशन गैप” की रफ़्तार को कम करें। यदि ऐसा न किया गया तो भविष्य में भी “जैनरेशन गैप” हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा और वर्णन भी नहीं कर सकते कि इसकी गम्भीरता का किस हद तक हमारे पीढ़ियों पर प्रभाव पर सकता है। यह समय और विचारों पर निर्भर होता है और होता रहेगा।
नयी कहानी
नयी कहानी के जन्म तक हिन्दी कहानी के विकास- पथ के विभिन्न मोड़ रहे। नयी कहानी और पिछली कहानी के बीच कुछ सुत्रों के होने के बावजूद नयी कहानी की यात्रा अपने आप में अत्यन्त विशिष्ट है। नयी कहानी की चेतना स्वातंत्र्योत्तर भारतीय जीवन के यथार्थ की चेतना है और यह चेतना कलाकारों के अनुभव से जुड़ी होने के कारण अनेक रुप और रंग धारण करती है। अर्थात नयी कहानी की चेतना परिवेश से जुड़े हुए व्यक्ति- मन की चेतना है। इसलिए वह न तो बाहरी यथार्थ की मनुभूतिहीन फारमूलाबद्ध कथा कहती है और न बाहरी परिवेश से विच्छिन्न होकर या बाहरी परिवेश को केवल अचेतन की दुनिया से संदभिर्त कर मात्र व्यक्ति- मन का चित्रण करती है। वह जीवन- परिवेश के दबाव में बनते- बिगड़ते मानवीय रिश्तों, मूल्यों, संवेदनों की अभिव्यक्ति है। प्रेमचंद ने अपने सामाजिक परिवेश को बहुत विविधता से उभारा था किन्तु निस्संकोच कहा जा सकता है कि उन की अधिकांश कहानियाँ उस परिवेश के खुलेपन का जितना अहसास जगाती हैं उतना उसके घनत्व और जटिलता का नहीं। जहाँ घनत्व का अहसास है वहाँ पूस की रात, कफ़न, और शतरंज के खिलाड़ी जैसी कहानियाँ दे सके हैं। दूसरी ओर जैनेन्द्र और अजेय में घनत्व तो है लेकिन वह घनत्व सामाजिक जीवन की पहचान और उसकी अनुभूति का घनत्व नहीं है। इन कहानियों में काल-संदर्भ में बदलते हुए सामाजिक जीवन – संबंधों की पहचान कम है, व्यक्ति की इयत्ता कि अनुभूति अधिक। प्रेमचंद की परंपरा में सामाजिक और समाजवादी कहानियाँ लिखने वाले कहानीकारों में भी परिवेशगत यथार्थ और लेखकीय अनुभुति के आपसी रिश्ते कम दिखाई पड़ते हैं। इस धारा के श्रेष्ठ कहानीकार यशपाल तो प्रायः परिवेशगत यथार्थ को एक वैचारिक धरातल पर ही पाने के लिए प्रय्तनशील दीखते हैं। हां ! , अश्क में निशचय ही परिवेशगत यथार्थ लेखक के अनुभवों में जीवंत होता दीखता है। परिवेशगत यथार्थ और लेखकीय अनुभूति का रिश्ता जहाँ टूट जाता है वहां कुछ समय बाद फारमूलों की सष्टि होने लगती है। सामाजिक यथार्थ के फारमूले बन जाते हैं। उन्हें देखने की पद्धतियों और अभिव्यक्ति शैलियों के भी फारमूले बन जाते हैं। इसलिए नयी कहानी से पूर्व की कहानी अपने अधिकांश रूप में फारमूलों से ग्रस्त है। प्रेमचंद के फारमूलों को तोड़ने वाली मनोवैजानिक कहानियों के अपने फारमूले बन गए, प्रगतिवादी कहानियों के अपने फारमूले थे।
नयी कहानी सामूहिक रूप में अनुभूति के स्तर पर इसी बदले हुए सामाजिक जीवन की पहचान की कहानी है। नयी कहानी जिए हुए जीवन- सत्य प अधिक बल देती है। अतः लेखकों ने अपने- अपने दायरे में जिए हुए अपने जीवन- सत्यों को अनुभूति के स्तर पर बहुत प्राथमिकता और तीव्रता से उभारना चाहा है। इसीलिए ये कहानियाँ अपनी सीमा में भी असीम हो उठती हैं और संरचनात्मकता में विशिष्ट। अंतिम बिंदु पर संकेंद्रण की परिपाटी को तोड़कर अपने पूरे अंतरंग विस्तार में जीने की जो शुरूआत पूस की रात और कफ़न में हुई थी और पत्नी, जाह्वी, रोज और डाची से होकर जो आगे बढी थी, उस की सचेत स्वीक्रिति और विकास नयी कहानी में द्रुष्टिगत होता है। दूसरी ओर मनोवैजानिक कहानियों में किस्सागोई की परंपरा को तोड़कर घटित संदभों के माध्यम से कहानी को स्वतः कुछ कहते चलने देने की जो राह बनी थी वह नयी कहानी में आकर अनेक प्रयोगात्मक छवियों से दीप्त होकर विविध रुपात्मक हो गई।
आज का कहानीकार आज के कवि के समान ही जीवन को उस की संशिलष्टता और जटिलता में पकड़ पाने और आकार देने के लिए आकुल है। वह यथार्थ जीवन का कलाकार होना चाहता है। वह मिथ्या आर्दशों और नैतिकताओं में विश्वास करना छोड़ चुका है, क्योंकि वह उसके सतत शून्य परिणामों से अवगत हो गया है। ऐसा भी नहीं है कि आज का कहानीकार सुंदर जीवन या उच्च कोटि के मानव- मूल्यॊं को नहीं चाहता। वह चाहता है, परन्तु वह यथार्थ जीवन के आधार पर प्रतिष्ठित मानव- मूल्यों या सुंदर जीवन की खोज में है। यदि वह नहीं मिल पाता तो वह सुंदर लाक्षागह नहीं तैयार करना चाहता जो एक ह्लकी- सी आंच से ही पिघल जाए और सामान्य व्यक्ति भी तो जानता है कि सच बोलना चाहिए, परोपकार करना चाहिए, आदि-आदि। लेकिन कलाकार का दायित्व बड़ा होता है- और दोहरा होता है- जीवन के प्रति और कला के प्रति। वह जिवन को सपाट सुंदर रूप में अंकित करके न तो जीवन को शक्ति दे सकता है, न कला को। अच्छे कलाकार को जीवन के भीतर प्रविष्ट होकर अंतग्रथित सत्य सूत्रों को पकड़ना होता है, उसकी जटिलताओं को उदघाटित करना होता है, मनुष्य की सारी अच्छाइयों, बोराइयों को भोगने वाले उस के मन की बनावट को ठीक से समझना हॊता है। मानव- मन ऐसी कोई बेजान चीज़ तो नहीं कि उस पर आपने अच्छा-बुरा लाद दिया और वह स्वीकार कर बैठा। आज का क हानीकार सत्य को उसकी आंतरिकता और जटिलता में पाने के लिए प्रयत्नशील है। जो लोग प्रेमचंद की पहले की या प्रेमचंद की या प्रेमचंदोत्तर प्रेमचंद परंपरा की कहानियों की स्वच्छ- सरल शैली और स्वच्छ कथ्य के कायल हैं, वे ज़रुर आज की कहानियों को सह पाने में कुछ कठिनाई अनुभव करते हैं। किन्तु आज का कहानीकार आज के पाठकों के लिए लिखता है जो स्वयं सर्जग के साथ जीवन की जटिलताओं को समझने और सुलझाने में सचेष्ट है, जो कला के इस गहन दायित्व को समझते हैं कि कला जीवन की बुनियादी सत्यओं को उदघाटित कर जीवन को सही ढंग से समझने वाली द्रष्टि का विकास करती है। वह केवल आनंद नहीं देती, वरन हमारि जिवन चेतना, हमारे जीवन बोद्द को जाग्र्त करती है, आधुनिक बनाती है।
चीफ़ की दावत
मिस्टर शामनाथ के यहाँ चीफ़ की दावत थी। वे अपने पत्नी के साथ घर को करीने से सजाने में जुटे थे। पति- पत्नी ने शाम तक घर को काफ़ी हद तक व्यवस्थित कर दिया। बरामदे में मेज़-कुर्सी व नैपकिन आदि लगा दिए। बैठक में पीने-पिलाने का प्रबंध किया। घर के फालतू सामान को यहाँ- वहाँ छिपा दिया गया। तभी शामनाथ को ध्यान आया कि वे माँ को कहाँ छिपाएँगे?
उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा तो वे बोलीं कि माँ को रात भर के लिए उनकी सहेली के पास भेज दिया जाए पर उनहें यह विचार पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा कि माँ रात का खाना जल्दी खाकर अपनी कोठरी में चलीं जाएँ और बाहर न निकलें। बात तो जँच गई लेकिन माँ के खर्राटों की समस्या आड़े आ गई। उन की कोठरी के पास ही वह बरामदा था, जहाँ मेहमानों का खाना लगना था। इस तरह आपसी बहस के बाद मिस्टर शामनाथ ने कुछ तय कर लिया। उन्होंने माँ से कहा कि वे पहले बराम दे में बैठी रहें, जब सभी इस तरफ़ आ जाए तो वे गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाएँ। कहने को तो उनहोंने कह दिया पर अब भी मन में डर लगा था कि कहीं अपमानित न हो जाएँ। उनहोंने माँ को कुर्सी पर तमीज़ से बैठना सिखाया और खटर- खटर की आवाज़ करने वाले खड़ाऊँ पहनने को मना किया। उनके कहने पर माँ ने सफ़ेद सलवार- कमीज़ भी पहन लिया।
मिस्टर शामनाथ की दावत ज़ोरों पर थी। साहब और मेमसाहब भी पूरे रंग में थे। ड्रिंक के दूसरे दौर में ही वे काफी खुल गए और हँसी-मज़ाक करने लगे थे। देर रात सभी महमान खाने की मेज़ की तरफ़ गए तो शामनाथ एक द्र्ष्य देखकर ठिठक गए। उसकी माँ कुर्सी पर बैठीं, गहरी नींद में खर्राटे ले रही थीं। अचानक माँ की आँख खुल गई और वे बुरी तरह से घबरा गई।
चीफ़ ने माँ से हाथ मिलाना चाहा तो माँ ने बायाँ हाथ ही साहब के आगे कर दिया। शराब के नशे में धुत्त मेहमानों के लिए माँ एक अच्छा मज़ाक बन गई। साहब के आग्रह और बेटे के आदेश पर माँ को विवाह का एक लोक गीत गाना पड़ा। सभी तालियाँ बजाने लगे। फिर साहब ने गावों में बने द्स्तकारी का जिक्र किया। शामनाथ ने वादा किया कि वे उन्हें तोहफ़े में द्स्तकारी देंगे। साहब ने कहा कि वे हाथ की बनी चीज़ें ही पसंद करते हैं। शामनाथ ने माँ से उनकी फुलकारी मँगवा ली।
चीफ़ ने मँ के हाथ की बनी फुलकारी की प्रसंशा की और वैसी फुलकारी बनाकर देने को क हा। शामनाथ ने चीफ़ से वादा किया कि वे उनके लिए वैसे ही फुलकारी बनवा देंगे। मेहमान खाना खाने लगे तो माँ अपनी कोठरी में जाकर बहूत रोई। उन्हें डर था कि बेटा उनसे नाराज़ होगा।
मिस्टर शामनाथ ने आधी रात को माँ का दरवाज़ा खटखटाया और उनसे चीफ़ के लिए फुलकारी बनाने को कहा । उन्होंने माँ से कहा कि साहब खुश होकर उसे तरक्की देंगे और बेटे की तरक्की की खबर सुनकर माँ बूढ़ी नज़र के बावजूद फुलकारी बनाकर देने की हामी भर देती है। बेटे की भलाई ही उसके लिए सब कुछ है। इस बिंदु पर उस का निजी मान-अपमान भी नगण्य हो जाता है।
उसने कहा था
यह कहानी जमादार लहनासिंह, सूबेदार, सूबेदारनी व उसके बेटे के आस पास घूमती है। लहनासिंह बचपन में अपने मामा के यहाँ अम्रितसर गया था। वहीं उस की भेंट यदा- कदा एक लड़की से होती थी। अक्स र थोड़ी बहुत बातचीत के बाद वे विदा लेते। लड़का पूछता ” तेरी कुड़माई हो गई, ” लड़की लज्जा कर भाग जाती। एक दिन वह इस प्रशन के उत्तर में अपना कढ़ा हुआ सालू दिखा देती है जो कि उसकी मंगनी का सूचक है। उसके बाद वे दोनों र्वषों नहीं मिलते। लहनासिंह ज़मींदार प्रथम विश्वयुद्द के लिए जाते समय सूबेदार के घर जाता है। वहाँ सूबेदारनी उसे पहचानकर भीतर बुला लेती है और उसे याद दिला देती है कि वह वही लड़की है, जो उसे अम्रितसर में मिली थी।वह लहना को याद दिलाती है कि एक बार दही वाले के दुकान के पास टाँगे का घोड़ा बिदक गया था तब लहना ने उसे बचाया था। वह लहना से विनती करती है कि वह उसके पति और पुत्र की रक्षा करे। लहनासिंह सुबेदारनी को दिया हुआ वचन नहीं भूलता। वह सूबेदार के पुत्र बोधा का पूरा ध्यान रखता है। उसे अपने र्गम कपड़े पहना पहनाकर खुद कड़कती र्सदी झेलता है। सभी सिपाही खंदक में छिपे बैठे हैं। वहाँ लपटन साहब की जगह कोई दूसरा र्जमन आ जाता है व सिपाहियों को उड़ाने की पूरी तैयारी कर लेता है। लहना की चतुराई से वह मारा जाता है पर मरते- मरते वह लहना की जांघ में गोली मार देता है। बोधा के पूछने पर लहना सिर्फ इतना कहता है कि ” हड़का कुत्ता घूस आया था, मार भगाया।” अचानक जर्मन उनकी खाई पर हमला कर देते हैं। वे सूबेदार और लहनासिंह के जवानों के बीच बूरी तरह घिर जाते हैं। इस युद्ध में सूबेदार के कंधे से गोली आर-पार निकलती है और लहनासिंह की पसली में गोली लगती है।वह अपने घाव कई खबर भी किसी को नहीं लगने देता। डाँक्टर व एंबुलेंस आते ही वह सूबेदार और उस के बेटॆ बोधा को इलाज के लिए भेज देता है पर अपने घाव पर पट्टी तक नहीं बांधने देता । जब सभी चले गए तब उस प्र तंद्रा छाने लगती है। उसे इस बात की प्रसन्न्ता है कि उसने सूबेदारनी के कहे का मान रख लिया। वह सूबेदार से कहता है कि सूबेदारनी से कहना कि मुझे उन्होंने जो कहा था, मैंने कर दिया। मत्यु पास आती जा रही है। उस की आँखों के आगे बचपन के वही द्श्य एक-एक करके आने लगते हैं और लहनासिंह जमादार आँखें मूँद लेता है।
Mrs Jeebosseea Reena Devi:
Namasté guruji,
10.02.2012 ki kaksha bahut hi rochak rahi kyunki aapné hamein ganon par vishléshan diya tha. Méra pehla gaana hai: “taakté rehté tujhko sanjh savéré, nainon mé basja jeisé nein yé téré..” iss gané mé abhinéta né bari khubi sé apni premika sé apné prem ka izhaar kiya hai. Manushya hamésha apné aap ko bhasha ké madhyam sé abhivyakta karta hai. Iss gaané ki bhasha varnaratmak hai jahan prem ka varnan hota hai. Soundarya ka varnan hua hai. Iss mé shringaar ras hai aur antyanupras alankaar hai jaisé ‘téré mast mast yé nein mere dil ka légayé chein’. iss mé Sanskrit shabd hai ‘nein’ aur Bhojpuri shabd ‘taakté’ hein. Gaané ki bhasha ka prayog paristhiti ké anukul hua hai kyunki premi apné prem ka vyakt karta.
Dusra gaana hai “ek larki ko dekha to aisa lagaa, jeisé khilta gulaab, jeisé shayar khaab….” Iss ki bhasha bhi varnaratmak hai jahan prem ka varnan hota hai. Soundarya ka varnan hua hai. Iss mé shringaar ras hai aur upma alankaar ka prayog hua hai. Premika ki tulna gulaab,khaab aur mandir ki jot sé hua hai. Iss mein ek kavi ki bhasha hai. Yahan par shabdon ké madhyam sé premika ka varnan hua hai. Shudh hindi bhasha ka prayog hua hai.yah bhasha bimb vidhan aur pratik vidhan hai.
Tisra gaana hai: “eh duniya ké rakhwalé, sun dard bharé mere nalé” iss gaané mé gaayak ké dard tatha dukh ka gyat hota hai. Iss mé bhi antyanupras alankaar hai jeisé ‘rakhwalé, nalé’. Iss bhasha ké madhyam sélakshya ki purti hoti hai. Bhagwan ké prati aastha aur vinaye ki pukar hai. Iss mé sutratmak pad hai jo kewal bhagwan tak hi simit hai. Iss prakar sé yah bhasha bodhgamya hai.
02.03.2012
Iss kaksha mé ‘a Wedenesday’ film ké ansh par vishléshan karna tha. Iss ka Vishay hai atankvaad. Yahan atankvaad ké prati larayi ho rahi hai. Nasrudin Shah, Anupam Kher ko chetavni de raha hai ki agar usné un char logon ko nahin mara to wah bomb sé aur logon ko maréga. Nayak ki bhasha sthiti ke anukul hai. Humé us atankvaad mahaul ka pata chalta hai.yah ansh jis prakar sé prastut hua hai humein pata chal jata hai ki nayak ko kya chahiyé. Bhahsa vyangyatmak hai ‘ tu,téra’ ka prayog hua hai. Hasya bhi hai ‘ lottery nikli hai’ , nayak apné niji jiwan ka varnan karta hai. Abhinéta né ache dhang sé abhinay kiya hai. Balaghat aur swagat bhashan hai. Yahan par sabhi ka dhyan abhinéta par hai. Yah ansh soliloquy hai. Bhasha sandeshatmak hai. Upshabd bhi hai ‘madar’ . yah bimb vidhan hai ‘ stupid common man’ angrezy shabdon ka prayog hua hai. Abhinéta ek parishkrit admi hai. Iss prakar sé samanya janta ki bhasha ka prayog hua hai.
namasté guruji,
I apologize for being late. mein maternity leave mé thi. budhvaar aur iss s♪0 purva ki kaksha ké notes mujhé prapt ho gayé bahut dhanyavaad. samvaad par aur vyakaran par notes kavi labhdayak hein. dhanyavaad guruji.
‘हिंदी महासागर की कांपती प्रत्यंचा’ मॉरिशस में हिंदी लेखन की समृद्ध परंपरा रही है। भारत के बाहर कई देशों में हिंदी में साहित्य सृजन हो रहा है, परंतु सर्जनात्मक साहित्य की जो प्राणवत्ता और जीवंतता मॉरिशस के हिंदी साहित्य में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। मॉरिशस को ‘हिंद महासागर का मोती’ कहा जाता है। अलेक्सांद्र जुमा ने अपनी औपन्यासिक कृति जॉर्ज में मॉरिशस को ‘भारत-भूमि की पुत्री’ कहा है। मणिलाल डाक्टर ने इसे ‘छोटा भारत’ कहा है। मॉरिशस को इस स्थिति में लाने में और हिंदी अप्रवासियों ने जो बेइंतहा जुल्म और दमन सहन किया है, उसका गूँगा इतिहास मॉरिशस के हिंदी साहित्य में सजीव अंकित है।
रामचरित मानस के माध्यम से मॉरिशस में हिंदी भाषा का बिरवा रोपा गया। कौन जानता था कि अनजाने में ही जो बिरवा रोपा गया था, वह भविष्य में विशाल वटवृक्ष बनेगा।
सम्प्रति मॉरिशस में हिंदी साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में साहित्य सृजन हो रहा है। २,०४० वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले इंद्रधनुषी सपनों के देश मॉरिशस में हिंदी कविता की एक सशक्त परंपरा है। मॉरिशस के प्रसिद्ध हिंदी कवि और समीक्षक मुनीश्वरलाल चिंतामणि ने मॉरिशस की हिंदी कविता को दो भागों में विभाजित किया है :
• पूर्व स्वतंत्रता काल (१९२३-१९६८ ई.) की कविता
• स्वातंत्र्योत्तर काल (१९६८ से अब तक) की कविता
मॉरिशस में हिंदी पत्रकारिता की शुरूआत मणिलाल डाक्टर के हिंदुस्तानी पत्र से हुई। २ मार्च १९१३ को इस पत्र में ‘होली’ शीर्षक कविता छपी। ‘होली’ कविता को मॉरिशस की प्रथम हिंदी कविता होने का श्रेय प्राप्य है। कविता के रचनाकार का नाम अज्ञात है। लक्ष्मीनारायण चतुर्वेदी ‘रसपुंज’ को मॉरिशस का प्रथम हिंदी कवि माना जाता है। १९२३ ई. में ‘रसपुंज कुंडलियाँ’ का प्रकाशन हुआ। इस काव्य संग्रह में एक सौ ग्यारह कुंडलियाँ हैं। इनकी कुंडलियों की भाषा पर ब्रज, भोजपुरी और अवधी का प्रभाव परिलक्षित होता है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है:
भैया जो सुख चहहू मिलिए सब सो नेह।
रोगी हीन दरिद्र पै अरपन करिए देह।।
रसपुंज की दूसरी रचना ‘शताब्दी सरोज’ के नाम से १९३५ ई. में प्रकाशित हुई। यह काव्यकृति भारतीय अप्रवासियों के आगमन के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में लिखी गई थी। मॉरिशस के पहले प्रमुख कवि ब्रजेन्द्र कुमार भगत ‘मधुकर’ हैं। २ सितंबर १९१६ को मोताई लांग में जन्मे ‘मधुकर’ मॉरिशस के राष्ट्रकवि हैं। मधुकर जी की तीस से अधिक काव्य कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी प्रथम काव्य कृति ‘मधुपर्क’ का प्रकाशन १९४२ ई. में हुआ। इनकी प्रमुख काव्य कृतियां हैं – मधुबन, मधुकरी, मधुकलश, मधुमास, गुंजन, रसवंती, हमारा देश, इत्यादि। मॉरिशस के राष्ट्रपिता शिवसागर रामगुलाम के साथ मॉरिशस के स्वतंत्रता संग्राम के शिरकत करने के कारण इनकी कविताओं में स्वतंत्रता आंदोलन की झलक दिखाई पड़ती है। ‘मधुकर’ जी की कविता का एक उदाहरण द्रष्टव्य है:
रे साथी कदम बढ़ाता चल
देश-देश में गूँज उठा है स्वतंत्रता का नारा।
बहती है मानव के मानस अविरल अमृत धारा,
आज गुलामी के बंधन को तोड़-फोड़ के चल।।
‘मधुकर’ की कविताओं में हिंदी और भारतीय संस्कृति के प्रति अनन्य प्रेम दिखाई देता है। हिंदी की प्रशस्ति में उन्होंने ‘हिंदी गान’ शीर्षक काव्य कृति का प्रणयन किया है।
मॉरिशस की आजादी के पूर्व ‘कवि सम्मेलन’, विष्णु दयाल कृत ‘कविता कली’, पंडित हरिप्रसाद रिसाल मिश्र कृत ‘छंदवाटिका’, जयरूद्ध दोसिया कृत ‘सुधा कलश’ एवं सोमदत्त बखोरी कृत ‘मुझे कुछ कहना है’ जैसी काव्य कृतियों का प्रकाशन हुआ।
१२ मार्च १९६८ को मॉरिशस ब्रिटिश आधिपत्य से मुक्त हुआ। स्वाधीन राष्ट्र के नागरिकों के दिलों में नवोल्लास फूटा। आजादी के बाद मॉरिशस की हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया। आज़ादी के पाने का उल्लास हरिनारायण सीता कृत ‘प्रभात’, जनार्दन कालीचरण कृत ‘प्रथम रश्मि’ और रामरतन रिसाल मिश्र कृत ‘बिखरे सुमन’ प्रभृति रचनाओं में परिलक्षित होता है। मॉरिशस की स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता पर विचार करते हुए मुनीश्वरलाल चिंतामणि लिखते हैं: ‘सन् १९६८ से मॉरिशस की हिंदी कविता स्वतंत्रता के वातावरण में फल-फूल रही है। स्वतंत्रता अपने साथ बेकारी और निर्धनता की समस्याएँ लाई। आर्थिक और सामाजिक स्वाधीनता के लिए कविता की संघर्ष चेतना को काव्य में स्थान मिला।’
सोमदत्त बखोरी
मॉरिशस की हिंदी कविता के अत्यंत सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनका जन्म मॉरिशस के मोताई लांग नामक गांव में १९२१ ई. में हुआ था। भारत सरकार द्वारा ‘विश्व हिंदी पुरस्कार’ से सम्मानित बखोरी के चार काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। प्रकाशित काव्य कृतियां हैं: मुझे कुछ कहना है, बीच में बहती धारा, नशे की खोज, सांप भी सँपेरा भी।
सोमदत्त बखोरी की कविताओं में वैविध्य के स्वर हैं। एक तरफ वह मॉरिशस की इंद्रधनुषी छटा पर मुग्ध होते हैं तो दूसरी ओर मॉरिशस की जिंदगी की विसंगतियों पर मर्मांतक व्यंग्य करते हैं। अपनी कविता ‘शक्कर की रोटी’ में बखोरी जिंदगी की विसंगतियों पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं :
पर मैंने कुछ और ही देखा
देखा कि धरती मां की लाज बचाने को
खून-पसीने के ताने-बाने से
हरी साड़ी की बुनाई हो रही है।
कवि को युगद्रष्टा कहा जाता है।
बखोरी के अंदर का द्रष्टा तृतीय विश्वयुद्ध के आसन्न संकट को देख लेता है। कवि का हृदय चीत्कार कर उठता है :
तीसरे महायुद्ध के हैं तीन मोर्चे
गरीबी, बीमारी, अज्ञानता
लड़ते हैं इसमें सिपाही
कदम-कदम पर हवलदार से
मारे जाते हैं इसमें आदमी
अव्यवस्था की तलवार से।
मुनीश्वरलाल चिंतामणि मुक्त छंद की कविता के जनक माने जाते हैं। उनकी काव्यकृति शांति निकेतन की ओर १९६९ में प्रकाशित हुई। उनकी कविताओं में क्रांति और संघर्ष के तत्व परिलक्षित होते हैं। औद्योगिक संस्कृति की विकृतियों पर करारा प्रहार करते हुए चिंतामणि जी लिखते हैं :
इंसान यहां खुद को भूलकर
रफ्ता-रफ्ता
पत्थर बनता जा रहा है,
लोहा बनता जा रहा है।
अभिमन्यु अनत
जिस रचनाकार ने हिंदी कविता को एक नया आयाम दिया है तथा जिसकी कविताएँ भारत के हिंदी साहित्य में भी महत्वपूर्ण स्थान पाने की हकदार हैं, वह हैं मॉरिशस के महान कथा-शिल्पी अभिमन्यु अनत। अभिमन्यु अनत का जन्म ९ अगस्त १९३७ ई. को त्रिओले में हुआ था। अब तक अनत के चार कविता संकलन प्रकाशित हो चुके हैं : ‘कैक्टस के दांत’, ‘नागफनी में उलझी सांसें’, ‘एक डायरी बयान’ तथा ‘गुलमोहर खौल उठा’। अभिमन्यु अनत अपने देश की नैसर्गिक सुषमा से भाव विभोर नहीं होते, बल्कि मानसिक त्रासदी से उद्वेलित होते हैं। अपनी कविता में वह अपने समाज पर होने वाले अत्याचार और शोषण के खिलाफ प्रश्नावाचक मुद्रा में खड़े हो जाते हैं। अभिमन्यु अनत की कविताओं में शोषण, दमन और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद की गई है। बेरोजगारी की समस्या पर भी अनत की दृष्टि गई है। समसामायिक व्यवस्था पर कवि का भावुक हृदय चीत्कार कर उठता है :
जिस दिन सूरज को
मज़दूरों की ओर से गवाही देनी थी
उस दिन सुबह नहीं हुई
सुना गया कि
मालिक के यहां की पार्टी में
सूरज ने ज्यादा पी ली थी।
अनंत की कविताओं में मॉरिशस के श्रमजीवियों की वेदना उभरती है। ‘लक्ष्मी का प्रश्न’ शीर्षक कविता में अनत प्रश्नवाचक मुद्रा में खड़े हो जाते हैं :
अनपढ़ लक्ष्मी पर इतना जरूर पूछती रही
पसीने की कीमत जब इतनी महंगी होती है
तो मजदूर उसे इतने सस्ते क्यों बेच देता है।
अनत द्वारा संपादित कविता संकलन हैं : मॉरिशस की हिंदी कविता, तथा मॉरिशस के नौ हिंदी कवि।
पूजानंद नेमा
का जन्म २४ नवंबर १९४३ को मॉरिशस के दक्षिण प्रांत के लाफ्लोरा गांव में हुआ था। उनका कविता संग्रह ‘चुप्पी की आवाज’ १९९५ में नटराज प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। उन्होंने ‘आकाशगंगा’ नामक काव्य संग्रह का संपादन भी किया है। उनकी कविताएँ अपनी एक अलग पहचान का अहसास देती हुई प्रतीत होती हैं। बड़ी कठिनाई से आजादी मिली हैं। आजादी कोई वस्तु नहीं हैं बल्कि संवेदना है। ‘जो गैरहाजिर है’ कविता में आजादी के अस्तित्व के प्रति कवि का चिंतन द्रष्टव्य है :
आजादी चेहरों का तबादला नहीं
गुलामों की एजेंसी भी नहीं
वायदे नहीं, नारे नहीं
आजादी चंद दिलों की सुहागरात भी नहीं
जिसे वेश्या भी मना लेती है।
मुकेश जीबोध
मॉरिशस के कवियों पर भारत के साहित्यकारों का प्रभाव सहज रूप से पड़ा है। मुकेश जीबोध उन युवा रचनाकारों में हैं जिनकी कविताओं पर भारत के नए कवियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। मुकेश जीबोध को मॉरिशस में हिंदी गज़ल का प्रवर्तक माना जा सकता है। उनकी ग़ज़लों का तेवर दुष्यंत कुमार की याद दिला देता है। उनकी गज़ल की चंद पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
क्या सोच के मैंने शीशे का मकान बनाया
बंधु हर आदमी ने है हाथ में पत्थर उठाया
लोगों ने मिलकर हमारे खिलाफ की है साजिश
इन दिनों फ़ासलों से चलता है अपना साया।
इंद्रदेव भोला ‘इंद्रनाथ’, महेश राम जियावन, वीरसेन जागासिंह और नारायणपत दसोई की कविताओं में संभावनाओं के नए क्षितिज की तलाश है। इंद्रदेव भोला का कविता संकलन ‘वरदान’ १९७२ में प्रकाशित हुआ। उनकी कविताओं में प्रवासी भारतीय मज़दूरों की पीड़ा का दर्दनाक इतिहास अंकित है। गिरजानन रंगू अपनी रचना ‘मॉरिशस के बाद’ के लिए याद किए जाते हैं। ठाकुरप्रसाद मिश्र के खंडकाव्य ‘दीपावली’ का प्रकाशन १९६२ में हुआ था। ठाकुरदत्त पांडे मॉरिशस के हिंदी में काव्य साहित्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। ‘निशा’ और ‘पुष्पांजलि’ उनके कविता संग्रह हैं। कृष्णलाल बिहारी ‘लेखवर’ कृत ‘ मैं हूँ कलियुगी भगवान’ तथा परमेश्वर बिहारी कृत ‘अभिशाप’ अन्य उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।
मॉरिशस में हिंदी में अब तक शताधिक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मॉरिशस की हिंदी कविता औपनिवेशिक दासता से मुक्त होकर अपने पथ पर अग्रसर है। मॉरिशस में हिंदी प्रकाशन के अभाव के बावजूद वहां के रचनाकार अपनी दुर्दम्य जिजीविषा से काव्य सृजन में रत हैं।अभिमन्यु अनत द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका ‘वसंत’ में हिंदी कवियों को प्रमुख स्थान मिल रहा है। प्रह्लाद रामशरण द्वारा संपादित ‘इंद्रधनुष’ तथा अजामिल माताबदल द्वारा संपादित ‘पंकज’ पत्रिकाओं में भी कविताएँ प्रकाशित हो रही हैं। ‘मॉरिशस ब्रोडकास्टिंग कॉरपोरेशन’ भी युवा कवियों को प्रोत्साहित कर रहा है। मॉरिशस में हिंदी कविता का भविष्य उज्ज्वल है और एक दिन हिंद महासागर के खूबसूरत द्वीप मॉरिशस की हिंदी कविता को भारत के हिंदी साहित्य के इतिहास में सम्मानजनक स्थान अवश्य मिलेगा।
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hame yeh karya mila hai ki hamein apne aur kisi khiladi ke beech hue baaatcheet samvad ko likhna hai.madad kijiye
एक संवाद लेखन स्वपन में ईशवर और बालक के बीच
Not to bad.
ook
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good
loude ke bal
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I need coverssation between two person in hindi topic in beta beti ek smaan
Debate on topic should we make pollution free Diwali
मां और बेटी की बात चीत को संवाद के रूप में लिखिए।
mangal grah par do mitra ka kalpanik samvand
please add
दो मित्रों के बीच फैशन की होड़ की सीख का संवाद लेखन बतायें|
Please make sanvad on
आपको अपने पिताजी से कुछ पैसे मांगने हैं जिससे आपको कुछ जरुरत का सामान लेना हैं इस हेतु पिता-पुत्र के बीच संवाद लिखिये?